नीतीश कुमार के फैसले पर हाईकोर्ट का अंकुश, आरक्षण 65 नहीं, 50 फीसदी ही रहेगा

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पिछड़े वर्ग का तुष्टीकरण कर लोकप्रियता हासिल करने या खुद को सामाजिक न्याय का पुरोधा दिखाने के इरादे से कुछ नेता संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए राज्य में आरक्षण का प्रतिशत मनमाने तौर पर बढ़ा देते हैं। ऐसा फैसला संविधान और कानून की कसौटी पर नहीं टिक पाता। बिहार में सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश के लिए आरक्षण का प्रतिशत 50 से बढ़ाकर 65 प्रतिशत किए जाने के नीतीश कुमार सरकार के फैसले को पटना हाईकोर्ट ने असंवैधानिक करार देते हुए रद्द करने का आदेश दिया है।

हाईकोर्ट ने कहा कि वर्तमान में आरक्षण की सीमा बढ़ाने का कोई तार्किक आधार नहीं है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट से तय 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। हाईकोर्ट ने सरकार को परामर्श दिया कि वह 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा में क्रीमीलेयर की समीक्षा कर संपन्न वर्ग की जगह वंचितों को आरक्षण का लाभ दे। नीतीश सरकार ने गत वर्ष 2 अक्टूबर को जाति सर्वे की रिपोर्ट सार्वजनिक की थी। इसे आधार बनाकर सरकार ने 21 नवंबर 2023 को आरक्षण का कोटा बढ़ाने का आदेश जारी किया था।

 

इंद्रा साहनी मामला

सुप्रीम कोर्ट ने प्रशासन में कुशलता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से 1992 के अपने इंद्रा साहनी विरुद्ध भारत सरकार वाले ऐतिहासिक निर्णय में अधिकतम 50 प्रतिशत आरक्षण सीमा निर्धारित की थी। इसके बावजूद 50 फीसदी की सीमा का उल्लंघन करने के प्रयास बिहार व अन्य राज्यों में हुए हैं। इसके पीछे वहां की राजनीति भी रही है। आरक्षण में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को आधार बनाया गया है इस 50 प्रतिशत की आरक्षण सीमा में एक मात्र अपवाद है- आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) को दिया गया 10 प्रतिशत आरक्षण। यह आरक्षण 2019 में दिया गया।

 

अन्य राज्यों में आरक्षण

1994 में हुए 76वें संविधान संशोधन में तमिलनाडु के 50 प्रतिशत की सीमा पार करनेवाले आरक्षण कानून को शामिल किया गया जो संविधान की नवीं सूची में समाविष्ट है। संविधान के अनुच्छेद 31ए के अनुसार नवीं सूची में शामिल कानून को चुनौती नहीं दी जा सकती और इसकी न्यायिक समीक्षा भी नहीं हो सकती। मई 2021 में सुप्रीम कोर्ट की 5 न्यायाधीशों की पीठ ने महाराष्ट्र के मराठा आरक्षण कानून को असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया था। मराठा आरक्षण का मुद्दा आज भी राजनीतिक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण बना हुआ है। ओबीसी भी अपने कोटे से किसी अन्य वर्ग को आरक्षण देने के लिए तैयार नहीं है। इसी तरह गुजरात में पटेल, पाटीदार, हरियाणा में जाट और आंध्रप्रदेश में कापू आरक्षण मांग रहे हैं।

 

नवंबर 2022 में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की पीठ ने 3-2 के बहुमत से दिए फैसले में कहा था कि 50 प्रतिशत की सीलिंग सिर्फ अजा-अजजा और ओबीसी कोटा के लिए है। यह आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग पर लागू नहीं होती जो कि एक अलग वर्ग है। 50 प्रतिशत की सीमा के आलोचकों का तर्क है कि यह मनमाना फैसला है। जहां तक बिहार की स्थिति है, वहां सामान्य वर्ग की आबादी 15 प्रतिशत है लेकिन उसके पास सबसे ज्यादा 6,41,281 सरकारी नौकरियां हैं। 63 प्रतिशत आबादी वाले पिछड़े वर्ग के पास 6,21,481 नौकरियां है। एससी के पास 2,91,004 तथा एसटी के पास 30,164 नौकरियां हैं। सरकारी नौकरी व एडमिशन में आरक्षण को लेकर जिसकी जितनी आबादी उतनी उसकी हिस्सेदारी का नारा लगाया जाने लगा है। संविधान संशोधन से ही आरक्षण सीमा बढ़ाई जा सकती है।

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