भारत के ‘स्व’ को परायी दृष्टि से नहीं समझा जा सकता : सुरेश सोनी

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नई दिल्ली में स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सभागार में आज शनिवार को केंद्र के कला कोश विभाग की ओर से प्रकाशित दो पुस्तकों- ‘द लैंड, पीपल एंड हिस्ट्री ऑफ उल्लावुर’ और ‘द लैंड, पीपल एंड हिस्ट्री ऑफ कुण्ड्रात्तुर’ का विमोचन किया गया। इस दौरान देश के प्रमुख राष्ट्रवादी चिंतक, शिक्षाविद सुरेश सोनी ने कहा कि भारत को अपनी स्वतंत्रता के शताब्दी वर्ष तक ‘स्व’ पर आधारित होने का लक्ष्य हासिल करना है। इस ‘स्व’ को हम परायी दृष्टि से नहीं समझ सकते। इसे समझने के लिए हमें अपने जीवंत इतिहास को समझना होगा।

बता दें कि इन पुस्तकों का सम्पादन डॉ. जतींदर के. बजाज और एम.डी. श्रीनिवास ने किया है। आयोजन के दौरान साथ कला केंद्र के अध्यक्ष रामबहादुर राय, सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी और कला कोश के विभागाध्यक्ष डॉ. सुधीर लाल ने भी सम्बोधित किया। राज्य सभा के पूर्व सदस्य रवींद्र किशोर सिन्हा भी मंच पर अतिथि के तौर पर मौजूद रहे।

सुरेश सोनी ने अपने वक्तव्य में प्रमुख चिंतक धर्मपाल के हवाले से कहा कि इतिहास को समझने के तीन माध्यम हो सकते हैं। पहला माध्यम ग्रंथ हुआ करते हैं। दूसरा संग्रह किए प्रमाण होते हैं। इनमें पाण्डुलिपियां तथा अन्य स्रोत आते हैं। इतिहास को जानने का तीसरा और सबसे कठिन माध्यम जीवित समाज का अध्ययन होता है। सुरेश सोनी ने दोनों पुस्तकों में प्रचुर आंकड़ों का जिक्र किया और कहा कि आंकड़े चेतन होते है। शीर्षकों और आंकड़ों को देखने-सुनने वाली सुयोग्य आंखें और कान होने चाहिए। वहीं सोनी ने चेताया कि मानव समाज के अध्ययन का पाश्चात्य तरीका समाज को बांटता है।

भारतीय अध्ययन प्रणाली में जुड़ाव व मनुष्य के निर्माण पर होता है जोर

सोनी ने कहा कि पश्चिम की अध्ययन प्रणाली मनुष्य के वर्ण, रंग और शरीर की बनावट पर आधारित है। इसी तरह भाषा के अध्ययन का पश्चिमी ढंग किन्हीं भाषाओं को अन्य से श्रेष्ठ साबित करने में लगा रहता है। इनसे अलग भारतीय अध्ययन प्रणाली में जुड़ाव व मनुष्य के निर्माण पर जोर होता है, जो अपने साथ ही समाज के हित के बारे में सोचता है। इसके विपरीत पश्चिमी सभ्यता सीधी रेखा वाली है, जो सामने पड़ने वाले को काटती है। सोनी ने कहा कि ये पुस्तकें अलग तरह की हैं।

इस दौरान आईजीएनसीए के अध्यक्ष रायबहादुर राय ने 9 अगस्त की तिथि को याद किया, जब गांधी जी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया था। राय ने 2 अगस्त, 1967 को लिखे डॉ. लोहिया के एक पत्र का हवाला दिया, जिसमें लोहिया 9 अगस्त को ‘जन दिवस’ कहते हैं। वे उम्मीद करते हैं कि एक दिन 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) से 9 अगस्त (जन दिवस) अधिक महत्वपूर्ण बन जाएगा, जिस प्रकार कई देशों में जन क्रांति को याद किया जाता है।

राय ने भी चिंतक और इतिहासकार धर्मपाल को याद करते हुए कहा कि वे जिलों का इतिहास लिखे जाने के पक्षधर थे। ऐसा करने से इतिहास का सही आकलन हो सकेगा। पुस्तक के एक सम्पादक डॉ. जतींदर के. बजाज ने ‘द लैंड, पीपल एंड हिस्ट्री ऑफ उल्लावुर’ के साथ ‘द लैंड, पीपल एंड हिस्ट्री ऑफ कुण्ड्रात्तुर’ पुस्तक के केंद्र में आए तमिलनाडु के उल्लावुर और कुण्ड्रात्तुर के शोध के दौरान अपने अनुभवों को साझा किया। उन्होंने कहा कि ये समृद्ध, सुंदर, स्वशासी गांव थे। उल्लावुर और कुण्ड्रात्तुर का उल्लेख प्राचीन वल्लभ साहित्य में भी मिलता है। उन्होंने जोड़ा कि थामस मुनरो ने 1813 में माना था कि भारत के गांव कुछ गांवों के जमघट भर नहीं हैं, बल्कि ये सुस्पष्ट एवं सुस्थिर इकाई हैं। इनका सुदीर्घ इतिहास है। गांव दरिद्र नहीं हैं और ये केवल कृषि पर आधारित नहीं हैं।

दूसरे सम्पादक एम.डी. श्रीनिवास ने अपने वक्तव्य में अन्य बिंदुओं के साथ ब्रिटिश साम्राज्य के पहले भारत की राज्यव्यवस्था पर भी प्रकाश डाला। इसके समर्थन में उन्होंने चेंगलापुट्टू जागीर के करीब दो हजार गांवों की प्रशासनिक व्यवस्था, तमिलनाडु में तब की ‘सुथानथिरम’ (स्वतंत्रम) का हवाला दिया, जिसमें विपुल कृषि पैदावार में से समाज को विभिन्न क्षेत्रों को दिए जाने वाले हिस्सों का उल्लेख है।

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