पर्यावरण शब्द का चलन नया है, पर इसमें जुड़ी चिंता नई नहीं है। वह भारतीय संस्कृति के मूल में रही है। आज पर्यावरण बचाने के नाम पर बाघ, शेर, हाथी आदि जानवरों, नदियों, पक्षियों, वनों आदि सबको बचाने के लिए विश्वव्यापी स्वर उठ रहें है। भारत में प्राचीन काल से पर्यावरण की तत्वों को धार्मिक कलेवर में समेत कर उनके संरक्षण एवं संवर्धन को एक सुनिश्चित आधार प्रदान किया गया है।
महाभारत में कहा गया है कि वृक्ष रोपने वाला उनके प्रति पुत्रवत आत्मीयता रखता है। एक वृक्ष अनेक पुत्रों के बराबर होता है। महाभारत में पीपल की पत्तियों तक को तोड़ना मना है। भारतीय मानवीय मूल्यों में वृक्षों को व्यर्थ काटना माना है। मनु स्मृति निर्देश देती है कि गांव की सीमा पर तालाब या कुएं बावड़ी कुछ न कुछ अवश्य बनाना चाहिए। साथ ही वट, पीपल, नीम या शाल एवं दूध वाले वृक्षों को भी लगाना चाहिए। किसी ग्राम में फूल व फलों से युक्त यदि एक भी वृक्ष दिखाई दे तो वह पूज्यनीय होता है। प्राचीन मूर्तियों में अशोक वृक्ष की पूजा क्रिया अंकित मिलती है।
अर्थ वेद के अनुसार जहां पीपल और बरगद के पेड़ होते हैं। वहां प्रबुद्ध लोग रहते हैं। वहां क्रीमी नहीं आते। कृष्ण पवित्र अक्षय वट वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान मग्न हुए थे। इसकी छाया जहां जहां तक पहुंचती है तथा इसके संघर्ष से प्रवाहित जल जहां तक पहुंचता है, वह क्षेत्र गंगा के समान पवित्र होता है। पीपल मानव जीवन से जुड़ा वृक्ष है। लंबे जीवन का प्रतीक है, क्योंकि यह दीर्घायु होता है। बिहार, उत्तर प्रदेश और अन्य हिंदीभाषी राज्यों में उपनयन संस्कार के समय इसकी भी पूजा होती है।
सामाजिक प्रथाओं और रीति-रिवाजों को देखें तो यह पता चलता है कि प्राचीन काल से ही महिलाएं पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक रही हैं। जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण आज भी महिलाओं द्वारा पर्व-त्योहार के अवसर पर पूजा अर्चना में अनेक वृक्षों यथा- पीपल, तुलसी, अमला, बेर, नीम आदि वृक्षों एवं विभिन्न पशु तथा गाय, बैल, चूहा, घोड़ा, शेर, बंदर, उल्लू आदि को सम्मिलित करना एवं उनकी पूजा-अर्चना के माध्यम से संरक्षण प्रदान करना देखने को मिल जाता है। सुहागिनी वट अमावस्या व्रत की पूजा के बाद वटवृक्ष की पुजा करती हैं। आदिवासियों में विवाह के समय महुआ के पेड़ पर सिंदूर लगाकर वधू अटल सुहाग का वरदान लेती है और आम के पेड़ को प्रणाम कर सफल वैवाहिक जीवन की कामना करती हैं। इस प्रकार, महिलाऐं विभिन्न रूपों में पर्यावरण की संरक्षण करती आ रही हैं।
जंगलों के विनाश के विरुद्ध सफल आंदोलन के रूप में पूरी दुनिया में चिपको आंदोलन सराह जा चुका है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस आंदोलन का संचालन करने वाली महिलाएं पहाड़ी व ग्रामीण क्षेत्रों की रहने वाली निरीक्षर एवं अनपढ़ महिलाएं थी। आज पढ़े-लिखे लोग भी पूर्वजों के लगाए पेड़ पौधों को काटने से नहीं हिचकिचाते हैं। यह गंभीर पर्यावरणीय मुद्दा है। जिंदगी भर मनुष्य लकड़ी से बने समानों का उपयोग करता है, किंतु पेड़ नहीं लगता है। यह चिंतनीय है। पेड़ लगाएंगे तो फल मिलेगा, आज नहीं तो कल मिलेगा।
डॉ. नन्दकिशोर साह
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