सबसे गर्म वर्ष के रूप में याद रहेगा 2024

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नई दिल्ली। वर्ष 2024 का समापन अब तक के सबसे गर्म वर्ष के रूप में होगा। यह ऐसा पहला साल होगा जब वैश्विक औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर के 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहा। लगातार बढ़ते तापमान के कारण रिकॉर्ड तोड़ गर्मी, भयानक तूफान और बाढ़ आईं, जिससे 2024 में हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी और लाखों घर नष्ट हो गये। सभी की निगाहें अजरबैजान के बाकू में होने वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन पर टिकी थीं, जहां उन्हें जलवायु वित्त पैकेज की उम्मीद थी, जो ग्लोबल साउथ में कार्रवाई को गति दे पाता।

‘ग्लोबल साउथ’ शब्द का इस्तेमाल आमतौर पर आर्थिक रूप से कम विकसित देशों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है।

लगातार बढ़ते तापमान के कारण रिकॉर्ड तोड़ गर्मी, भयानक तूफान और बाढ़ आईं, जिससे 2024 में हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी और लाखों घर नष्ट हो गये। लाखों लोग विस्थापित हो गये और सभी की निगाहें अजरबैजान के बाकू में होने वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन पर टिकी थीं, जहां उन्हें जलवायु वित्त पैकेज की उम्मीद थी, जो ‘ग्लोबल साउथ’ में कार्रवाई को गति दे पाता।

विकसित देशों – जिन्हें संयुक्त राष्ट्र जलवायु व्यवस्था के तहत विकासशील देशों में जलवायु कार्रवाई को वित्तपोषित करने का दायित्व सौंपा गया है – ने 2035 तक मात्र 300 अरब अमेरिकी डॉलर की पेशकश की है।

भारत ने नये जलवायु वित्त पैकेज को ‘‘बहुत छोटा, बहुत दूरगामी’’ बताया था।

विकासशील देशों के सामने एक कठिन विकल्प था: अगले वर्ष वार्ता की मेज पर लौटें या कमजोर समझौते को स्वीकार करें।

2025 में ‘जलवायु परिवर्तन को नकारने वाले’ डोनाल्ड ट्रम्प की वापसी और पेरिस समझौते से अमेरिका के बाहर निकलने के कारण और भी बदतर परिणाम की आशंका के कारण, ग्लोबल साउथ ने अनिच्छा से इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

एक पूर्व भारतीय वार्ताकार ने ‘पीटीआई-भाषा’ को बताया, ‘‘विकासशील देशों को लगा कि उन्हें एक कमजोर समझौते को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा है।’’

वर्ष 2015 में सभी देश वैश्विक तापमान को ‘‘दो डिग्री सेल्सियस से भी कम’’ तक सीमित रखने के लिए एक साथ आए थे, तथा इसका लक्ष्य 1.5 डिग्री सेल्सियस था।

पूर्व-औद्योगिक युग से लेकर अब तक दुनिया का तापमान 1.3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है, जिसका मुख्य कारण जीवाश्म ईंधन का जलना है।

संयुक्त राष्ट्र की जलवायु विज्ञान संस्था आईपीसीसी का कहना है कि तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए उत्सर्जन को 2025 तक चरम पर पहुंचना होगा और 2030 तक 43 प्रतिशत तथा 2035 तक 57 प्रतिशत कम होना होगा। वर्तमान नीतियां अधिक गर्म भविष्य की ओर संकेत करती हैं – 2100 तक लगभग तीन डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि। यदि प्रत्येक देश अपने जलवायु संबंधी वादों या राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) को पूरा भी कर ले, तो भी 2030 तक उत्सर्जन में केवल 5.9 प्रतिशत की कमी आएगी, जो कि आवश्यकता से बहुत कम है।

विकसित राष्ट्र विकासशील देशों पर पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए और अधिक प्रयास करने का दबाव डाल रहे हैं।

फिर भी, यही देश अक्सर तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लिए आवश्यक कदम उठाने में असफल रहते हैं।

दूसरी ओर, विकासशील देशों की दलील है कि उनका उत्सर्जन बहुत कम है तथा वे पहले से ही गरीबी और बढ़ती जलवायु आपदाओं से जूझ रहे हैं।

वे इस बात पर जोर देते हैं कि उन्हें अपने विकास से समझौता किए बिना स्वच्छ ऊर्जा अपनाने के लिए वित्तीय और तकनीकी सहायता की आवश्यकता है।

सीओपी29 के परिणामों ने विकासशील देशों को 2030-35 की अवधि के लिए अपनी जलवायु महत्वाकांक्षाओं को बढ़ाने के लिए प्रेरित करने में कोई विशेष भूमिका नहीं निभाई।

जीवाश्म ईंधन मुख्य दोषी हैं, जो वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 75 प्रतिशत से अधिक के लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन उन्हें छोड़कर नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करना कहना जितना आसान है, करना उतना आसान नहीं है, विशेष रूप से ‘ग्लोबल साउथ’ के गरीब देशों के लिए। वे नौकरियों और सस्ती ऊर्जा के लिए उन पर निर्भर हैं तथा उनके पास वित्त पोषण, प्रौद्योगिकी, बुनियादी ढांचे और विशेषज्ञता का अभाव है।

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