भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से घुश्मेश्वर को अंतिम ज्योतिर्लिंग माना जाता है। यह महाराष्ट्र में दौलताबाद में वेरुलगांव के पास स्थित है। शिव पुराण के अनुसार, इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन से जीवन के सभी दुख दूर हो जाते हैं और मृत्यु के बाद स्वर्ग की प्राप्ति होती है। सावन का पवित्र महीना समाप्त होने में कुछ दिन शेष हैं, आइए इस पावन मौके पर जानते घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति की कथा।
घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति की कथा
दक्षिण देश में देवगिरि पर्वत के निकट सुधर्मा नामक एक अत्यंत तेजस्वी और तपोनिष्ठ ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुदेहा था। दोनों में परस्पर बहुत प्रेम था। किसी प्रकार का कोई कष्ट उन्हें नहीं था। लेकिन उन्हें कोई संतान नहीं थी। ज्योतिषियों ने बताया कि सुदेहा के गर्भ से संतान के उत्पत्ति हो ही नहीं सकती। वहीं, सुदेहा संतान की बहुत ही इच्छुक थी। उसने सुधर्मा से आग्रह किया, “हे स्वामी! संतान बिना यह जीवन कैसे चलेगा, हमारे संस्कार कौन करेगा? इसलिए आप मेरी छोटी बहन से दूसरा विवाह कर लीजिए।”
रोजाना सौ पार्थिव शिवलिंग का पूजन
पहले तो सुधर्मा को सुदेहा यह बात नहीं जंची। लेकिन अंत में उन्हें पत्नी की जिद के आगे झुकना ही पड़ा। वे उसका आग्रह टाल नहीं पाए। वे अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याह कर घर ले आए। घुश्मा अत्यंत विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। वह भगवान् शिव की अनन्य भक्त थी। प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर हृदय की सच्ची निष्ठा के साथ उनका पूजन करती थी।
सुदेहा को घुश्मा से हुआ डाह
भगवान शिवजी की कृपा से थोड़े ही दिन बाद उसके गर्भ से अत्यंत सुंदर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया। बच्चे के जन्म से सुदेहा और घुश्मा दोनों के ही आनंद का पारावार न रहा। दोनों के दिन बड़े आराम से बीत रहे थे। लेकिन न जाने कैसे थोड़े ही दिनों बाद सुदेहा के मन में एक कुविचार ने जन्म ले लिया। सुदेहा सोचने लगी, “मेरा तो इस घर में कुछ है ही नहीं। सब कुछ घुश्मा का है।”
धीरे-धीरे सुदेहा के मन का यह कुविचार-रूपी अंकुर एक विशाल वृक्ष का रूप लेने लगा। वह हर पल यही सोचती थी, “मेरे पति पर भी घुश्मा ने अधिकार जमा लिया। संतान भी उसी की है।” इस कुविचार ने सुदेहा मन को इतना दूषित कर दिया कि उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई। इधर घुश्मा का वह बालक भी बड़ा हो रहा था। धीरे-धीरे वह जवान हो गया। उसका विवाह भी हो गया।
मौसी ने अपने भतीजे को मार डाला
इर्ष्या और डाह से उत्पन्न कुविचार के प्रभाव में अंततः एक दिन सुदेहा ने घुश्मा के युवा पुत्र को रात में सोते समय मार डाला। उसके शव को ले जाकर उसने उसी तालाब में फेंक दिया, जिसमें घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंगों को विसर्जित करती थी। सुबह होते ही सबको इस बात का पता लगा। पूरे घर में कुहराम मच गया। सुधर्मा और उसकी पुत्रवधू दोनों सिर पीटकर फूट-फूटकर रोने लगे।
घुश्मा को मानो जैसे कुछ हुआ ही न हो
उधर घुश्मा नित्य की भांति भगवान शिव की आराधना में तल्लीन रही। जैसे कुछ हुआ ही न हो। पूजा समाप्त करने के बाद वह पार्थिव शिवलिंगों को तालाब में छोड़ने के लिए चल पड़ी। जब वह तालाब से लौटने लगी, तो उसी समय उसका प्यारा पुत्र तालाब के भीतर से निकलकर आता हुआ दिखलाई पड़ा। उसने सदा की भांति आकर घुश्मा के चरणों का स्पर्श किया, जैसे कहीं आस-पास से ही घूमकर आ रहा हो।
जब भगवान शिव को आया क्रोध
इसी समय भगवान शिव भी वहां प्रकट हुए। घुश्मा की निष्ठा और भक्ति से प्रसन्न उन्होंने घुश्मा से वर मांगने को कहा। साथ ही, महादेव सुदेहा की घनौनी करतूत से अत्यंत क्रुद्ध हो उठे थे। वे अपने त्रिशूल से उसका गला काटने को तैयार दिखाई दे रहे थे। घुश्मा ने हाथ जोड़कर भगवान शिव से कहा, “हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मेरी उस अभागिन बहन को क्षमा कर दें। निश्चित ही उसने अत्यंत जघन्य पाप किया है, लेकिन आपकी दया से मुझे मेरा पुत्र वापस मिल गया। अब आप उसे क्षमा करें।”
ऐसे हुई घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति
घुश्मा ने फिर कहा, “और प्रभो! मेरी एक प्रार्थना और है कि लोक-कल्याण के लिए आप इस स्थान पर सर्वदा के लिए निवास करें।” भगवान शिव ने उसकी ये दोनों बातें स्वीकार कर लीं। ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होकर वह वहीं निवास करने लगे। सती शिव-भक्त घुश्मा के आराध्य होने के कारण वे यहां घुश्मेश्वर महादेव के नाम से जाने जाते हैं।