बिहार: पार्टियों की भीड़ में कितनी जगह बना सकेंगे प्रशांत किशोर
अगले दस सालों में बिहार को विकसित राज्य बनाने के संकल्प के साथ चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने शुरु की अपनी जन सुराज पार्टी. बिहार में शिक्षा और रोजगार के बुरे हाल की चर्चा करते हुए उन्होंने अपनी सोच सबके सामने रखी.
दो साल पहले दो अक्टूबर को गांधी जयंती के दिन पश्चिमी चंपारण जिले के भितिहरवा से पदयात्रा की शुरुआत करने वाले चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर का अभियान जन सुराज व्यवस्था परिवर्तन की प्रतिबद्धता व अगले दस वर्षो में बिहार को विकसित राज्यों की श्रेणी में पहुंचाने के संकल्प के साथ अंतत: एक राजनीतिक दल में परिवर्तित हो गया.
सही लोग, सही सोच और सामूहिक प्रयास के सहारे बदलाव की आकांक्षा रखने वाले प्रशांत किशोर (पीके) 17 जिलों के 5,500 गांवों की अपनी पांच हजार किलोमीटर की पदयात्रा के दौरान राजनीति को जिम्मेदार बनाने का संदेश लोगों को देते रहे. इस दौरान उन्होंने आम जनों को यह समझाने की कोशिश की कि राजनीतिक दलों की रीति-नीति ही राज्य की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है.
अब अपने खुद के ‘जन सुराज’ को एक राजनीतिक दल घोषित करने के मौके पर उन्होंने जय बिहार से अपनी बात की शुरुआत करते हुए बिहारियत का स्वाभिमान जगाने की कोशिश की और व्यवस्था परिवर्तन का संकल्प लिया. कार्यक्रम में जुटी भीड़ को दिए संबोधन में उन्होंने लालू यादव, नीतीश कुमार के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी लपेटे में लिया. बिहार की दुखती रग, खासकर शिक्षा और रोजगार की चर्चा करते हुए अपना चुनावी एजेंडा साफ कर दिया.
चाय पर चर्चा से हुए चर्चित
पीएम मोदी की ‘चाय पर चर्चा’ से लेकर ‘बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है’ का नारा देने वाले प्रशांत किशोर बिहार के बक्सर जिले के रहने वाले हैं. हैदराबाद के संस्थान से तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे यूनिसेफ से जुड़ गए. दक्षिण अफ्रीका में भी काम किया, फिर 2010 में भारत लौटे. वाइब्रेंट गुजरात और चाय पर चर्चा जैसे कैंपेन से उनकी देशभर में पहचान बन गई.
2015 में वह नीतीश कुमार से जुड़े और फिर आरजेडी, कांग्रेस और जेडीयू के महागठबंधन को जीत दिलाकर जेडीयू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने. लेकिन, एनआरसी और सीएए के मुद्दे पर विवाद के बाद पार्टी से अलग हो गए. कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, आंध्र प्रदेश के जगनमोहन रेड्डी और स्टालिन से लेकर ममता बनर्जी के लिए भी पर्दे के पीछे रहकर चुनावी रणनीति को अंजाम दिया. आखिरकार, उन्होंने बिहार में नई राजनीतिक व्यवस्था बनाने की सोच के साथ उसी ऐतिहासिक गांधी आश्रम से पदयात्रा की शुरुआत की, जहां से 1917 में महात्मा गांधी ने पहला सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया था.
कैसा है बिहार में बदलाव का रोडमैप
राजनीतिक रणनीतिकार होने के नाते सभी पार्टियों की कमजोरी समझने वाले पीके का सब कुछ सुनियोजित था. अपनी पदयात्रा के दौरान भी वे उन मुद्दों को ही उठाते रहे. उनकी परिकल्पना ऐसा बिहार बनाने की है, जहां दूसरे राज्यों से लोग रोजगार की तलाश में आएं. उन्होंने पूंजी, पढ़ाई और जमीन के जरिए गरीबी उन्मूलन का प्लान बताया.
पीके ने अपने एजेंडे में सबसे ऊपर बच्चों और किशोरों को रखा है. इनके लिए ऐसी विश्वस्तरीय शिक्षा व्यवस्था की जाएगी, जिससे बड़े होकर वे बोझ न बन सकें. इस शिक्षा व्यवस्था के लिए अगले दस सालों में पांच लाख करोड़ की जरूरत पड़ेगी, जिसे वे शराबबंदी समाप्त कर उससे आने वाले राजस्व से जुटाएंगे. इसके बाद 15 से 50 वर्ष के लोगों के लिए उनकी पार्टी राज्य में ही 10-12 हजार रुपये के रोजगार की व्यवस्था करेगी और इसके लिए आवश्यक धन वे साख-जमा अनुपात (क्रेडिट रेशियो) को संतुलित कर जुटाएंगे.
इसी तरह 60 साल से ऊपर के लोगों को प्रति माह दो हजार रुपये दिए जाएंगे. महिलाओं को रोजगार के लिए चार प्रतिशत वार्षिक ब्याज पर ऋण देने की बात कही. अभी जीविका द्वारा दो-ढाई प्रतिशत मासिक ब्याज की दर पर उनकी सहायता की जा रही है. पीके ने किसानों के लिए खाने वाली नहीं, कमाने वाली खेती की बात कही. साथ ही यह भी बताया कि सत्ता में आने पर दस साल में बिहार को विकसित करने की कल्पना को साकार करने के लिए वे धन की व्यवस्था कैसे करेंगे.
राजनीतिक समीक्षक अरुण कुमार चौधरी कहते हैं, “पहले भी प्रशांत किशोर अपनी सभाओं में लोगों को उनके बच्चों के भविष्य का वास्ता देते रहे. वे कहते रहे हैं कि भले ही आधा प्लेट खाइए, लेकिन बच्चों को पढ़ाइए. अगर वे अनपढ़ रहेंगे तो चाहे लालू हों या नीतीश, कोई उन्हें डॉक्टर-इंजीनियर नहीं बना पाएगा. वे मजदूर ही बन पाएंगे. इसलिए जन सुराज का नारा भी है- बिहार ने कर ली तैयारी, अपने बच्चों की है तैयारी.”
सरकारी आंकड़ों के अनुसार बिहार की कुल आबादी का 22.67 प्रतिशत हिस्सा पहली से पांचवीं क्लास तक ही पढ़ सका है, वहीं 32 प्रतिशत ने तो स्कूल का मुंह ही नहीं देखा है. 2023 में लोकसभा में पेश आंकड़ों के मुताबिक बिहार की साक्षरता दर मात्र 61.8 प्रतिशत है. इसी तरह नेशनल सर्विस करियर (एनसीएस) के आंकड़ों के अनुसार राज्य में बेरोजगार युवाओं की संख्या लगभग 9.2 लाख है.
जाति-जमात की क्या है योजना
बिहार में जहां हर बात जाति से शुरू होती है, वहां लोग क्या इससे इतर पीके की बातों पर यकीन करेंगे. वाकई, यह एक यक्ष प्रश्न है. इसका अंदाजा उन्हें भी है. इसलिए तो उन्होंने दलित समाज के रिटायर्ड आइएफएस (भारतीय विदेश सेवा) अधिकारी मनोज भारती को जन सुराज पार्टी का पहला कार्यवाहक अध्यक्ष बनाया और साथ ही यह भी घोषणा कर दी कि उनकी पार्टी के झंडे में महात्मा गांधी के साथ बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का चित्र भी होगा. इससे पहले एक पॉडकास्ट में उन्होंने साफ-साफ कहा था कि जाति एक सच्चाई है. इससे इनकार नहीं किया जा सकता. हर समाज में योग्य लोग हैं और वे किसी न किसी जाति के हैं. लेकिन जन सुराज में किसी भी स्तर पर केवल जाति ही नहीं, काबिलियत का भी ख्याल रखा जाएगा.
मोटे तौर पर समाज को पांच वर्गों में देखा जाता है- पहला सामान्य, दूसरा ओबीसी (अन्य पिछड़ा), तीसरा ईबीसी (अति पिछड़ा), चौथा अनुसूचित जाति (एससी) और पांचवां मुस्लिम समाज. किसी भी पद पर पहली बार कौन नेतृत्व करेगा, इसका भी फॉर्मूला तय किया गया है. सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर जो सबसे पीछे है, उस समाज के व्यक्ति को सबसे पहला मौका मिलेगा. यह सब जन सुराज के संविधान में दर्ज किया जा रहा है.
क्यों कर रहे शराबबंदी हटाने की बात
प्रशांत किशोर बिहार के ऐसे पहले नेता हैं, जो शराबबंदी हटाने और उसे चुनाव का एजेंडा बनाने की बात कह रहे. राज्य में शराबबंदी की घोषणा के बाद दो आम चुनाव तथा एक विधानसभा चुनाव हो चुके हैं, लेकिन कोई इसे हटाने की बात कहने का साहस नहीं कर सका. हां, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के संरक्षक व केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी इसके लागू किए जाने के तरीके पर एतराज करते रहे, यह कहते रहे कि इससे गरीब-गुरबा परेशान है, वही जेल जा रहा है, लेकिन उन्होंने भी इसे हटाने की बात कभी नहीं कही.
जन सुराज का मानना रहा है कि इस पर लगे उत्पाद शुल्क से मिले राजस्व का इस्तेमाल शिक्षा व्यवस्था सुधारने पर किया जा सकता है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक एक अप्रैल, 2016 को राज्य में शराबबंदी लागू होने के पिछले वित्तीय वर्ष 2015-16 में राज्य को शराब से 3,141 करोड़ का राजस्व प्राप्त हुआ था जो उसके अगले वित्तीय वर्ष में घट कर महज 29 करोड़ रह गया. अब हाल यह है कि इसे लागू करने के लिए राज्य सरकार उत्पाद विभाग पर 600 करोड़ खर्च कर रही है.
प्रशांत किशोर का मानना है कि बिहार का अगला चुनाव थ्री-एस, यानि शराबबंदी, सर्वे और स्मार्ट मीटर पर लड़ा जाएगा. हाल ही में मीडिया से बातचीत में उन्होंने कहा कि शराबबंदी सिर्फ कागजों पर है. जमीन हकीकत है कि उसकी होम डिलीवरी हो रही है. एक घातक समानांतर अर्थतंत्र खड़ा हो गया है. वहीं, उनका कहना है कि जमीन सर्वे से गांवों में झगड़े हो रहे हैं. कागजात जुटाने के नाम पर लोग परेशान हैं. सर्वे के वर्तमान प्रावधान से परिवारों में विद्रोह शुरू हो गया है. आरजेडी और कांग्रेस की तरह पीके भी स्मार्ट मीटर के खिलाफ हैं. उनका कहना है कि बिजली बिल में भारी बढ़ोतरी से लोगों में धारणा बन गई है कि इस मीटर के जरिए उनके बिलों से छेड़छाड़ की जा रही है. उनका मानना है कि ये सब नीतीश कुमार की पार्टी के लिए हार का कारण बनेगा.
कितना लाभकारी होगा राइट टू रिकॉल
जन सुराज के पार्टी में परिणत होने से पहले प्रशांत किशोर ने मीडिया को बताया कि उनकी पार्टी वैसे ही प्रत्याशियों को टिकट देगी जो राइट टू रिकॉल (जनप्रतिनिधि को वापस करने) पर सहमति का हलफनामा देंगे. ताकि, अगर कोई उम्मीदवार जीत गया, लेकिन जनता उससे नाराज है तो उससे इस्तीफा ले लिया जाए. उनका कहना था कि देश में पहली बार किसी पार्टी के संविधान में इसे लिखा जाएगा.
पत्रकार शिवानी सिंह कहती हैं, “यह बात दीगर है कि क्या होगा, किंतु अगर इसे सार्वजनिक मंच से वे ऐसा कह रहे तो यह बड़ी राजनीतिक शुचिता की बात है. क्योंकि, अमूमन जिन नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं, वे खुद को निर्दोष ही कहते रहते हैं. फिर वे कोर्ट चले जाते हैं और अगर वहां दोषी साबित होते हैं तो जेल जाते हैं. बाद में उनके परिवार का कोई न कोई सदस्य उनकी राजनीति संभाल लेता है. राजनीति में नैतिकता तो अब बीते दिनों की बात रह गई है.”
सत्ता की राह कितनी आसान
प्रशांत किशोर के चुनावी एजेंडे को देखा जाए तो साफ है कि शिक्षा, रोजगार और शराबबंदी उनकी प्राथमिकता में है. इसमें कोई दो राय नहीं कि व्यक्ति किसी भी जाति का हो, रोजगार नहीं मिलने पर वह मजबूर होकर बिहार से पलायन कर जाता है. इसकी भयावहता पूरी दुनिया कोविड काल में देख चुकी है. पत्रकार एसके पांडेय कहते हैं, ‘‘सभी दलों का अपना-अपना वोट बैंक है, जो चक्रव्यूह की तरह ही है. सबसे पहले उसे तोड़ना होगा. एक दलित को आगे कर उन्होंने इसकी शुरुआत कर भी दी है. मुस्लिम फैक्टर भी अहम है. फिर जिस शराबबंदी की वे खिलाफत कर रहे, उसके समर्थन में एक पूरी लॉबी है, जिसकी जेब में अवैध धन जा रहा है और यह सबको पता है. यह लॉबी उन्हें हर हाल में रोकेगी.”
लालू यादव के बाद अब नीतीश कुमार को देखते हुए भी काफी अरसा बीत गया. इसमें कोई दो राय नहीं कि विकल्प मिलने पर लोग बदलाव चाहेंगे. प्रशांत किशोर के दावे भले ही बड़े-बड़े लग रहे हों, लेकिन जो मुद्दे वे उठा रहे, वे समीचीन तो हैं. लोगों ने उन पर कितना भरोसा किया, इसकी पहली झलक नवंबर में होने वाले रामगढ़, बेलागंज, इमामगंज और तरारी विधानसभा सीट के उपचुनाव में दिख ही जाएगी
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