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जाति के आधार पर जेलों में काम का बंटवारा असंवैधानिक: सुप्रीम कोर्ट 

ByKumar Aditya

अक्टूबर 4, 2024
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भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जेलों में जाति-आधारित भेदभाव और काम का बंटवारा अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है. कोर्ट ने राज्यों को जेल मैनुअल में संशोधन करने का निर्देश दिया है.

भारत में जेलों के भीतर जाति के आधार पर भेदभाव और काम के बंटवारे को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार, 3 अक्टूबर को ऐतिहासिक फैसला सुनाया. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने कहा, “राज्य की जेल नियमावली के अनुसार, जाति को जेलों में हाशिए पर पड़े वर्गों के कैदियों के साथ भेदभाव का आधार नहीं बनाया जा सकता.” कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसी कुप्रथाओं की अनुमति नहीं दी जा सकती.

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सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए यह फैसला दिया. पत्रकार सुकन्या शांता की एक खोजी रिपोर्ट ‘द वायर’ में छपी थी, इसी के आधार पर यह जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी. खुद सुकन्या शांता ही याचिकाकर्ता हैं. सीजेआई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में तीन न्यायाधीशों की बेंच ने अपने फैसले में कहा, “सभी लोग समान पैदा होते हैं और उन्हें अपनी जाति से जुड़े कलंक के कारण जीवन भर पीड़ा नहीं झेलनी चाहिए.”

सुप्रीम कोर्ट: कैदी भी सम्मान के हकदार

अदालती कार्रवाई पर रिपोर्ट करने वाली वेबसाइट ‘लाइव लॉ’ के मुताबिक, सीजेआई चंद्रचूड़ ने फैसला पढ़ते हुए कहा, “जाति के आधार पर कैदियों को अलग करना जातिगत भेदभाव को मजबूत करेगा… अलग-थलग करने से कैदियों के पुनर्वास में मदद नहीं मिलेगी. कैदियों को सम्मान न देना औपनिवेशिक व्यवस्था का अवशेष है. यहां तक कि कैदियों को भी सम्मान का अधिकार है. उनके साथ मानवीय और क्रूरता रहित बर्ताव किया जाना चाहिए.”

कोर्ट ने अपने फैसले में जेलों के भीतर जाति-आधारित भेदभाव को असंवैधानिक करार दिया और जेल मैनुअल को तुरंत संशोधित करने का निर्देश दिया. कोर्ट ने कहा जेल नियमवाली जाति के आधार पर कामों का बंटवारा करके सीधे भेदभाव करती है. कोर्ट ने माना कि जाति-आधारित काम का आवंटन, जैसे कि वंचित जातियों को सफाई और झाड़ू लगाने जैसे काम सौंपना, जबकि अगड़ी जातियों को खाना पकाने जैसे काम देना, संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है. अनुच्छेद 15 जाति के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है.

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कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि जाति को वंचित वर्गों के खिलाफ भेदभाव के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. अंग्रेजी अखबार ‘हिंदू’ ने कोर्ट के फैसले के बारे में बताया कि अदालत ने पाया कि उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और केरल समेत 10 से अधिक राज्यों के जेल मैनुअल में ऐसे प्रावधान हैं, जो जेलों में जाति के आधार पर भेदभाव और श्रम को मंजूरी देते हैं.

जेल मैनुअल में बदलाव के निर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि जेल मैनुअल में कैदियों की जाति से जुड़ी जानकारी जैसे संदर्भ असंवैधानिक हैं. कोर्ट ने कई राज्यों के जेल मैनुअल के उन प्रावधानों को खारिज कर दिया, जिनके अनुसार जेलों में जाति के आधार पर काम बांटे जाते थे.

कोर्ट ने उत्तर प्रदेश जेल मैनुअल के उन प्रावधानों पर आपत्ति भी जताई, जिसमें कहा गया कि साधारण कारावास में जाने वाले व्यक्ति को तब तक सफाई या झाड़ू लगाने का काम नहीं दिया जाना चाहिए, जब तक कि उसकी जाति ऐसे काम करने के लिए इस्तेमाल न की गई हो. कोर्ट ने अपने निर्देश में यह भी कहा कि जेल रजिस्टरों में जाति के कॉलम को हटाना चाहिए.

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कोर्ट ने इस साल जनवरी में ‘द वायर’ की पत्रकार सुकन्या शांता द्वारा दायर याचिका पर केंद्र सरकार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल समेत 11 राज्यों से जवाब मांगा था. कोर्ट ने इस दलील पर गौर किया था कि इन राज्यों के जेल मैनुअल उनकी जेलों के अंदर काम के बंटवारे में भेदभाव करते हैं और कैदियों को रखने का स्थान उनकी जाति के आधार पर तय होता है.

इसी साल जुलाई में सीजेआई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच ने संकेत दिया था कि वह गृह मंत्रालय को भारत की जेलों में जाति-आधारित भेदभावपूर्ण प्रथाओं को खत्म करने के लिए एक नोडल अधिकारी नियुक्त करने का निर्देश देगी.

पत्रकार सुकन्या शांता मानवाधिकार और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दों पर लिखती हैं. उन्होंने अपनी रिपोर्ट “Barred–The Prisons Project” में कुछ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की जेलों के भीतर जातिगत भेदभाव को उजागर किया था. उन्होंने रिपोर्ट में बताया था कि कैसे जेलों में काम का बंटवारा जाति के आधार पर होता है.


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