बिहार के एक छोटे से गाँव ने वो कर दिखाया है, जिसके लिए पूरी दुनिया अथक प्रयास कर रही है. यहाँ के स्थानीय लोगों ने एक ऐसा उपाय निकाला है जिससे भूमंडलीय उश्मीकरण तथा घटते लिंग अनुपात का एक ही साथ निवारण संभव हो गया है. इस परंपरागत उपाय का उपयोग आज से नहीं बल्कि कई दशकों से यहाँ के लोगों द्वारा किया जा रहा है.
आम तौर पर बिहार के ज़्यादातर ज़िले बाढ़ग्रस्त होने की वजह से ग़रीबी और भुखमरी के शिकार होते हैं. परंतु यहाँ के भागलपुर ज़िले का धरहरा गाँव अपने आप में एक मिसाल के रूप मे उभर कर आया है. ज़िला मुख्यालय से केवल बीस किलोमीटर की दूरी पे स्थित यह गाँव इस इलाक़े के सबसे ज़्यादा हरे भरे क्षेत्रों में से एक है. सिर्फ़ यही नहीं, धरहरा गाँव बिहार की उस तस्वीर को बिल्कुल झुठला देगा, जिसमें भ्रूण हत्या और महिलाओं का शोषण ही दिखाई देता है.
बिहार के दूसरे किसी भी गाँव की एवज इस गाँव में बेटियो के पैदा होने पे उनका स्वागत कम से कम दस फलों के पौधे लगा के किया जाता है. आम के पौधों को लगा कर बेटी के होने का उत्सव मनाना यहाँ की मानो परंपरा सी बन गयी है. नवजात बच्चियों को यहाँ देवी लक्ष्मी के रूप में पूजा जाता है और जब वे बड़ी होती हैं तो ये आम के पेड़ भी उन्हें विरासत के तौर पर सौंपे जाते हैं.
इसी परंपरा की बदौलत यह गाँव, जो की दक्षिण से गंगा नदी से तथा पूर्वोत्तर से कोसी नदी से घिरा है, आज बीस हज़ार से भी ज़्यादा फलों के पेड़ों के बीच बसा हुआ है. गाँव के प्रधान श्री परमानंद सिंघ जी की युवा बेटी सुकृति का कहना है, “आज जब पूरी दुनिया भ्रूण हत्या, भूमंडलीय उश्मीकरण और कार्बन पदचिन्ह जैसी परेशानियों से जूझ रही है, ऐसे में बेटियों के होने पर वृक्षारोपण करना हमारी एक साधारण सी तरकीब है इन मुश्किल हालातो से लड़ने की.
अत्याधिक रूप से रूढ़िवादी माने जाने वाले बिहारी समाज में अमूमन बेटियों को आर्थिक बोझ के तौर पर ही देखा जाता था. दहेज के लिए बहुओं की हत्या के मामले आम बात होती थी. पर धरहरा गाँव की इस मुहिम ने इन सब घटनाओं को अख़बार का हिस्सा बनने से रोक दिया है. बेटी के होने पे जिन वृक्षों को लगाया जाता है वे आगे चल के उनकी शिक्षा तथा भविष्य निर्माण के काम आता है. इस तरह से बेटी के परिवार को किसी भी आर्थिक दायित्व का सामना नहीं करना पड़ता.
गाँव के भूतपूर्व प्रधान श्री प्रमोद सिंघ जी के शब्दों में कहा जाए तो – “इन पौधों को हम विरासत में अपनी बेटियों को देते है. जैसे-जैसे हमारी बेटियाँ बड़ी होती हैं ये पौधे भी पेड़ का रूप ले लेते है. और इन पेड़ों के फलों से ना केवल इन बेटियों के परिवार को मदद मिलती है बल्कि बच्चियों की पढ़ाई का और शादी का खर्चा भी निकल जाता है. हम इन पेड़ों को बेटियों के होते ही इसलिए लगाते हैं ताकि जैसे हमारी बेटियाँ शादी के लिए तय्यार हो जाए वैसे ही ये पेड़ भी फल देने के लिए तय्यार हो जायें.”
प्रमोद ने बारह साल पहले अपनी बेटी नीति के होने की खुशी में दस आम के पेड़ लगाए थे. आज नीति स्कूल जाती है और उसकी पढ़ाई का खर्चा ना ही उसके पिता को और ना ही किसी और परिवारवाले को अखरता है. वजह उसके जन्म पर लगाए हुए आम के पेड़ हैं जिन के फलों को बेच कर नीति की पढ़ाई का सारा खर्चा निकल जाता है. हाँ नीति की पारंपरिक विचारधारा रखने वाली माँ, रीता देवी ज़रूर अभी से नीति की शादी के सपने देखती है. और उनका मानना है की ये पेड़ नीति की शादी में भी किसी संपत्ति की तरह ही काम आएँगे.
दहेज जैसी कुप्रथा को ख़त्म होने में शायद अभी कई साल या फिर कह लीजिए कई पीढ़ियाँ लग जाएँगी. पर बीस वर्षीय मधुरानी – जिन्हें एक तीन महीने की बालिका की माँ होने का गौरव प्राप्त है – भविष्य को बेहद ही आशावादी तरीके से देखती हैं. उनका कहना है की “हमें मालूम है कि दहेज की प्रथा पूरी तरह से हमारे समाज से निकल नहीं सकती, लेकिन हमारी बेटियों के नाम पे कुछ संपत्ति का होना उन्हें और उनके परिवारों को एक बेहतर ज़िंदगी की तरफ ले जा रहा है.”
‘हर इनिशियेटिव‘ नामक एक गैर सरकारी संगठन जो कि स्वयम-रोज़गार के द्वारा महिलाओं को सक्षम बनाने मे मदद करता है, इससे जुड़ी सुश्री गुलअफ़सान का कहना है- “हालाँकि इन लोगों के लिए पौधे लगाना महज़ अपनी बेटियों के भविष्य के लिए संपत्ति का इकट्ठा करना है पर इस तरीके ने इन महिलाओं मे स्वामित्व के भाव को भी जगाया है जो की यहाँ की महिलाओं के लिए एक आम बात नहीं है.”
फिलहाल करीब आठ हज़ार गाँव वालों समेत बीसियों युवा लड़कियाँ भी अपनी मेहनत के फलों का मज़ा ले रहे हैं. भागलपुर ज़िला शुरू से ही अपने आम की पैदावार के लिए मशहूर रहा है. आम के एक पौधे को पेड़ बनने में औसतन चार से पाँच साल लग जाते हैं. इस के बाद थोड़ी सी देखभाल करने पर ये पेड़ हर साल भरपूर मात्रा में फल देते हैं. जहाँ इन फलों का एक बड़ा हिस्सा आमदनी के लिए बेच दिया जाता है वही इनका कुछ हिस्सा बच्चों के खाने के लिए भी रख दिया जाता है. तीन बच्चों की माँ, निर्मलादेवी का कहना है, “मेरे बच्चों को आम खाना बहुत अच्छा लगता है और मैं उन्हें रोकती भी नहीं क्यूंकि यह उन के सेहत के लिए भी काफ़ी अच्छा है.”
आम के पेड़ो को लगाने का एक लाभ यह भी है की जब ये पेड़ वृद्ध हो जाते हैं तब इन्हें काट कर लकड़ियाँ भी इकट्ठी की जा सकती है जिनसे बने सस्ते फर्निचर की बज़ार में हमेशा ही भारी मात्रा में माँग होती है. “कुछ सालों बाद हम इन पेड़ों को काट कर, इनकी लकड़ियों से सामान बनवा लेते हैं जो कि हमारी बेटियों की शादी में उपहार के तौरपर काम आते हैं ” – मुस्कुराते हुए निर्मलादेवी ने कहा.
बीस वर्षीय निवेदिता सिंघ, जिनका विवाह हाल ही में पास के गाँव के एक शिक्षक से हुआ है, समझाती है कि ” इस परंपरा का एक और कारण यह भी है की खेतों की अपेक्षा फलों के बागानों में काम करने में कम मेहनत लगती है. बस शुरुआत के कुछ सालों में धैर्य रखने की ज़रूरत होती है. और फिर तो ये पेड़ बेहतर से बेहतर परिणाम देते चले जाते हैं.” निवेदिता के माता पिता को भी उनकी पढ़ाई तथा शादी की कभी चिंता नही करनी पड़ी क्यूंकि उन के नाम से लगाए गये आम के पेड़ों ने यह सारा भार उठा रखा था.
इन पेड़ों ने यहा के खेती के तरीकों को भी बदल दिया है. परमानंद सिंघ जी का कहना है कि “पीढ़ियों से हमारे गाँव के लोग अपने गुज़ारे के लिए खेत जोतने में लगे रहते थे. पर अब कुछ समय से वे परंपरागत खेती छोड़कर फलों के बागानों में काम करना पसंद कर रहे है क्यूंकि इसमें उनकी आमदनी ज़्यादा होती है और मेहनत भी कम लगती है”.
वैसे तो आम के पेड़ लगाने में यहाँ के लोगो की सबसे ज़्यादा रूचि है. परंतु आम के पेड़ों की देखरेख करना इतना आसान नहीं होता. ऊपर से इनसे बाकी फलों के मुक़ाबले पैसे भी कम मिलते है. इसी कारणवश यहाँ के कुछ किसान अब अन्य फलों, जैसे की लीची, अमरूद तथा पपीता भी उगाने लगे है, जिनकी खेती मे कम समय और कम लागत लगती है.
अस्सी साल के बुज़ुर्ग श्री शत्रुघन सिंघ जी ने धरहरा में अपनी बेटियों, पोतियों तथा गाँव की अन्य बेटियों के लिए छ: सौ से भी ज़्यादा फलों के पेड़ लगाए हैं. उनके लगाए हुए पेड़ों में से ज़्यादातर आम के पेड़ हैं. परंतु पिछले कुछ सालों में उन्होने भी लीची के पेड़ लगाना आरंभ कर दिया है. शत्रुघन सिंघ जी की बेटियाँ अब विवाहित हैं और उनकी दोनो पोतियाँ, नेहा और निशा अब स्कूल जाती हैं. दोनों ही इस बात से बड़ी ही उत्साहित है की आगे चल के ये बीस पेड़ उनके होंगे.
बेटियों के लिए पेड़ के रूप में संपत्ति बनाना अपने आप में एक बेहद ही कारगर योजना है. यदि यह उपाय बिहार के बाकी क्षेत्रों में भी अपनाया जाए तो इससे बिहार की एक बड़ी समस्या, लिंग अनुपात का निवारण हो सकता है. २०११ की जनगणना के हिसाब से बिहार का लिंग अनुपात फिलहाल ९३३ है, जो कि भले ही देश के औसतन लिंग अनुपात, ९१४ के मुक़ाबले बेहतर है पर यह तीस वर्ष पहले के आँकड़े, ९८१ के मुक़ाबले काफ़ी कम है.
धरहरा की इस विजयगाथा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी का भी ध्यान अपनी और खींचा. नीतीश कुमार खुद धरहरा गाँव पहुँचे और उन्होनें वहाँ पेड़ लगाए. यही नहीं उन्होनें यह भी सुनिश्चित किया की इस गाँव में एक कन्या विद्यालय भी निर्मित हो. कुछ वर्ष पहले एक जनसभा में धरहरा गाँव की तारीफ़ में उन्होने ने कहा था कि धरहरा निवासीयों की इस बेटियों के लिए पेड़ लगाने की बरसो से चली आ रही प्रथा ने देश मे एक क्रांति लाई है. ऐसे समय में जब देश लिंग अनुपात और भ्रूणहत्या जैसे गंभीर विषयों से जूझ रहा है वहीं धरहरा के स्थानीय लोगों की यह सहजयोजना एक साथ दो समस्याओं का निवारण कर रही है. एक, पर्यावरण का संरक्षण और दूसरा, लिंगभेद.
बेटियों को वरदान मानें और पेड़ों को पूंजी जाने – यही संदेश देता है यह छोटा सा गाँव.