महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले के IAS ऑफिसर डॉ. राजेंद्र भारूड़ ने कोरोना की दूसरी लहर के बीच पर्याप्त ऑक्सीजन सप्लाई, बेड, एक नियोजित टीकाकरण अभियान और व्यवस्थित तैयारी के साथ, जिले को बचाये रखने में कामयाबी हासिल की है।
महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले की जनसंख्या 16 लाख से ज्यादा है। लेकिन, कोरोना महामारी की दूसरी लहर में, इस जिले की कहानी देश के बाकी हिस्सों से बिल्कुल अलग है। आज जहाँ देश के लगभग सभी शहरों में, कोविड-19 के मरीजों की संख्या लगातार बढ़ने से स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गयी है। वहीं, इस जिले की स्थिति आज भी नियंत्रण में है। यहाँ आज 150 खाली बेड और दो ऑक्सीजन प्लांट हैं। इन ऑक्सीजन प्लांट की कुल ऑक्सीजन उत्पादन करने की क्षमता 2400 लीटर/मिनट है।
जिले के पर्याप्त संसाधनों और बेहतरीन स्वास्थ्य साधनों के कारण, पड़ोसी जिलों और राज्यों (मध्य प्रदेश और गुजरात) से भी कोविड-19 के मरीज नंदुरबार में भर्ती हो रहे हैं। इस वजह से भले ही अस्पतालों पर काम का भार बढ़ रहा है, लेकिन फिर भी यह जिला न सिर्फ बढ़ते कोरोना मामलों को रोकने में कामयाब रहा, बल्कि यहाँ 30% तक मामले कम हो गए हैं। रोजाना के एक्टिव केस की संख्या 1200 से 300 पर आ गई हैं।
इस कामयाबी का श्रेय जिले के IAS डॉ. राजेंद्र भारूड़ और उनकी टीम को जाता है, जिसमें प्रशासनिक स्टाफ, डॉक्टर और वॉलंटियर शामिल हैं। पहली कोरोना लहर के बाद, मरीजों की घटती संख्या और वैक्सीन प्रोग्राम पर केंद्र सरकार के आश्वासन के बाद, बहुत से शहरों और गांवों में सेट-अप किए गए कोविड फैसिलिटी केंद्रों को हटाया जाने लगा था, लेकिन डॉ. राजेंद्र ने ऐसा नहीं किया, बल्कि उन्होंने अपने जिले में स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने और बेहतर करने की दिशा में काम किया। ताकि अगर अचानक मामले बढ़ने लगें, तो वह स्थिति को काबू में रख पाएं।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए MBBS डॉ. राजेंद्र ने कहा, “जब भारत में कोरोना के मामले कम हो रहे थे, मैंने देखा कि अमेरिका और ब्राज़ील में अचानक मामले बढ़ने लगे और स्थिति खराब हो गयी। इसलिए, अगर हमारे साथ ऐसी स्थिति आये, तो मैं तैयार रहना चाहता था। इसलिए, सितंबर 2020 में हमने जिले का पहला ऑक्सीजन प्लांट लगाया, जिसकी ऑक्सीजन उत्पादन की क्षमता 600 लीटर प्रति मिनट है। जबकि हमारे यहाँ एक दिन में अधिकतम मामले 190 तक ही पहुंचे थे। मार्च में हमने दूसरा ऑक्सीजन प्लांट लगाया और जब अप्रैल में एक दिन में ही कोरोना के मामले 1200 तक पहुँच गए, तब हमने तीसरा ऑक्सीजन प्लांट लगाने की तैयारी शुरू कर दी। जल्द ही हमारे पास कुल 3000 लीटर प्रति मिनट ऑक्सीजन उत्पादन की क्षमता होगी।”
डॉ. राजेंद्र ने कोरोना की दूसरी लहर को काबू करने की अपनी रणनीति के बारे में विस्तार से बताया।
लोगों के हिसाब से की व्यवस्था:
एक मजबूत स्वास्थ्य ढाँचा तैयार करने के लिए, पैसा सबसे महत्वपूर्ण साधनों में से एक है। इस मजबूत स्वास्थ्य सिस्टम के तहत, हर एक ब्लॉक में एम्बुलेंस, वेंटिलेटर, बेड, ऑक्सीजन प्लांट, टीके, दवाइयां, स्टाफ, एक वेबसाइट और कंट्रोल रूम होने चाहिए थे। इन सभी संसाधनों को जुटाने के लिए डॉ. राजेंद्र ने जिला योजना और विकास निधि, राज्य आपदा राहत कोष और सीएसआर जैसे सभी साधनों का सही तरह से इस्तेमाल किया।
वह कहते हैं, “हम नहीं चाहते थे कि हमारे डॉक्टर किसी भी तरह के दबाव में हों, इसलिए उन्हें सभी जरूरत की चीजें उपलब्ध कराई गयीं। फिर चाहे इसके लिए हमें एक ऑक्सीजन प्लांट के लिए, 85 लाख रुपए ही खर्च क्यों न करने पड़े हों। ऑक्सीजन सिलिंडर सिर्फ कुछ ही राज्यों में बनते हैं। जब तक वहाँ से सिलिंडर आते, बहुत सी ज़िन्दगियों पर खतरा बढ़ चुका होता। इसलिए, हमारे प्लांट सीधे हवा का उपयोग करके, ऑक्सीजन उत्पादन करते हैं और पाइप के माध्यम से मरीजों तक ऑक्सीजन पहुंचाया जाता है। हमने यह भी सुनिश्चित किया कि मरीज की गंभीर हालत का इंतजार करने की बजाय, जैसे ही मरीज का ऑक्सीजन लेवल गिरने लगे, उसे ऑक्सीजन पाइप से ऑक्सीजन दे दी जाए। इस तरह, मरीज केवल 30% ऑक्सीजन का उपयोग करते हैं, जबकि बाद की स्थिति में 90%। जब ऑक्सीजन गिरना शुरू होता है, तो यह सीधे मस्तिष्क और किडनी को प्रभावित करता है, जिससे मरीजों का तेजी से ठीक होना मुश्किल हो जाता है। इसलिए, ऑक्सीजन के स्तर को सामान्य बनाए रखने और प्रारंभिक अवस्था में ही देखभाल करने की जरूरत है।”
स्कूल और सामुदायिक हॉल जैसे स्थानों को कोविड-19 केंद्रों में तब्दील किया गया। प्रशासन ने केवल आइसोलेशन के लिए सात हजार बेड तैयार किए और 1300 बेड ICU या वेंटिलेटर की सुविधाओं के साथ उपलब्ध थे। उन्होंने मरीजों को अस्पताल लाने के लिए 27 एंबुलेंस भी खरीदे और शवों को ले जाने के लिए 2 एम्बुलेंस तैयार किये गए। साथ ही, 50 लाख रुपये के Remdesivir इंजेक्शन भी खरीदे गए।
प्रशासन द्वारा उठाए गए शुरुआती चरणों में से एक था, लोगों के बीच घबराहट (पैनिक) की स्थिति को नियंत्रित करने और नागरिकों को व्यवस्थित रूप से मार्गदर्शन करने में मदद करने के लिए, एक वेबसाइट और नियंत्रण कक्ष बनाना। इस तरह से यह सुनिश्चित किया गया कि लोगों को बेड के लिए इधर-उधर भटकना न पड़े और उन्हें समय से सही जानकारी और मदद मिले।
कोरोना की पहली लहर के दौरान, जिले को फ्रंटलाइन डॉक्टरों की कमी के कारण, भारी संकट का सामना करना पड़ा था। चूंकि इस क्षेत्र में कोई मेडिकल कॉलेज नहीं हैं, इसलिए विशेषज्ञों को ढूंढना एक चुनौती थी। इसलिए, डॉ. राजेंद्र ने सभी स्थानीय डॉक्टरों को साथ जोड़ा और उन्हें ऑक्सीजन के स्तर की निगरानी करने तथा ऐसे मरीज, जिन्हें सांस लेने में दिक्कत हो रही हो, उनमें ऑक्सीजन नली को फिट करने जैसी महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं के लिए प्रशिक्षित किया।
उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि जिले में टीकाकरण अभियान सुचारू रूप से चलता रहे। इस आदिवासी जिले में टीकाकरण अभियान के बारे में जागरूकता की कमी होने के बावजूद भी, अभी तक 45 वर्ष से अधिक आयु के तीन लाख व्यक्तियों में से एक लाख को वैक्सीन की पहली डोज़ (खुराक) दी जा चुकी है।
वह आगे कहते हैं, “टीकाकरण के लिए लोगों को बुलाने की बजाय, हमने टीका देने के लिए जिले के हर भाग को 16 वाहन आवंटित किए। इस तरह, लोगों को पहाड़ी इलाकों से चल कर आने की जरूरत नहीं पड़ती थी। हमने शिक्षकों और सरपंचों को स्थिति की गंभीरता के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए प्रेरित किया और यह कोशिश कामयाब रही।”
नंदुरबार प्रशासन, सीमावर्ती कार्यकर्ताओं और लोगों के सामूहिक प्रयासों से, यह आदिवासी जिला आज पूरी तरह से आत्मनिर्भर बन चुका है। इसके साथ ही, डॉ. राजेंद्र का आईएएस अधिकारी बनने का सफर भी बहुत प्रेरणादायक है। जिले की सामोडे (Samode) तालुका में जन्मे डॉ. राजेंद्र को उनकी माँ ने अकेले पाल-पोस कर बड़ा किया। उनका परिवार एक झोपड़े में रहता था और उन्होंने बहुत मुश्किल से सरकारी स्कूल से अपनी पढ़ाई पूरी की। उनके इस संघर्ष भरे सफर के बारे में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।