गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः, जिसने आपको किताबों का दिया ज्ञान वही नहीं हैं केवल आपके शिक्षक

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गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः, गुरुः साक्षात्‌ परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥ हमारे संतों ने जगत में गुरु को ही सर्वश्रेष्ठ माना है। क्योंकि गुरु ही छात्रों के एक मात्र हितैषी हैं, वे सब कुछ करने वाले हैं, बिना उनके ज्ञान रूपी आशीर्वाद के कुछ भी नहीं होने वाला है। ऐसे में गुरु के अतिरिक्त किसी और पर भरोसा करने वाला ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता।

गुरु से ज्ञान और आशीर्वाद प्राप्त करने का एकमात्र उपाय निश्छल, निर्मल और निष्काम भाव से तन, मन से उनके चरणों में सर्वस्व अर्पित कर उनकी प्रेम पूर्वक सेवा ही है। गुरु को इसलिए तो पारस की उपमा दी गई है। गुरु के संपर्क में आया शिष्य वैसे ही कुंदन हो जाता है जैसे पारस के संपर्क से लोहा सोना हो जाता है। लेकिन, इसके लिए भी जरूरी है कि दोनों में अभिन्न संबंध हो। यदि पारस और लोहे के मध्य कोई भी विजातीय पदार्थ रहेगा तो लोहे पर पारस का प्रभाव नहीं पड़ेगा। ऐसे में गुरु और शिष्य के बीच ज्ञान के आदान-प्रदान के समय किसी किस्म का पर्दा नहीं होना चाहिये। यह अभिन्न संबंध श्रद्धा, विश्वास एवं प्रेम का संबंध है।

गुरु भी शिष्य की पात्रता से संतुष्ट होकर ही उसको बहुमूल्य कृपा रूपी ज्ञान देते हैं। गुरु ऐसे हैं जो शिष्य के भीतर की गंदगी को हटाकर उसे अपने ज्ञान के द्वारा सुयोग्य पात्र बना देते हैं। गुरु शिष्य के भीतर के दोषों को दूर करने का ही तो काम करते हैं।

गुरु कृपालु हैं तो कठोरता के प्रतिबिंब भी। वह उस कुम्हार की तरह मिट्टी से घड़ा बनाते समय उसे बाहर से ठोकते-पीटते हैं, परन्तु भीतर हाथ से सहारा देता हैं कि कहीं घड़ा टूट न जाए। इसके पीछे की एक वजह है कि घड़ा सुन्दर और सुडौल हो।

मतलब स्पष्ट है कि इस सृष्टि के सृजन, पालन और विनाश के सभी स्तंभ गुरु में ही समाहित हैं। तभी तो गुरु ही ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हैं, गुरुदेव हीं शिव हैं तथा गुरुदेव ही इन तीनों के मेल से तैयार साक्षात साकार स्वरूप आदिब्रह्म हैं। यानि बिना गुरु के कृपा और आशीर्वाद के इस चराचर को समझने से लेकर भौतिक सुखों की प्राप्ति तक का मार्ग ढूंढ पाना मुश्किल है। वैसे भी गुरु के संदर्भ में लोगों को बस इतना ही लगता है कि जिन्होंने हमें किताबों का ज्ञान दिया वही गुरु हैं। जबकि ऐसा नहीं है, मां के आंचल से हमारे जीवन में गुरु शिष्य परंपरा की शुरुआत हो जाती है। अपने-पराये, नाते-रिश्तेदार किसके साथ कैसा व्यवहार, इसकी शिक्षा तो मां के कोख से निकलने के बाद ही दी जाने लगती है। नैतिकता के आधार स्तंभों के बारे में हमें तभी बता दिया जाता है।

फिर बारी आती है उप संस्कार की मतलब कान में वह मंत्र देना जो जीवन के सार को समझाता है। इसके बाद आता है समाज में जीने की सीख जो बुजुर्गों से मिलनी शुरू हो जाती है। क्या अच्छा और क्या बुरा है, किसके साथ किस तरह का व्यवहार करना है किससे कैसा नाता रखना है। समाज में कैसे उठना-बैठना है। कैसा आहार लेना है, कौन सा आहार हमारे चित्त को शीतलता देगा और कौन उग्रता। फिर आता है स्त्री और पुरुष के बीच के संबंधों का ज्ञान जो परिवार देता है कि हमें सम्मान के किन उच्च मानदंडों को जीना है।

इसके बाद शुरू होती है किताबी ज्ञान की शिक्षा जहां एक अहाते में इतने व्यवहार को सीखने के बाद हम अलग-अलग घरों से निकले बच्चों के बीच बैठते हैं और गुरु पूरी तन्मयता से हमारे जीवन को कुम्हार के घड़े की तरह पहले कच्ची और गीली मिट्टी से बनाते हैं फिर उसे पकाकर तैयार करते हैं। अब हम बाजार में खनकने को उतरते हैं तो हमारे पास जीविकोपार्जन के रास्ते खोजने के लिए एक गुरु की आवश्यकता होती है। यहां एक जीवनसंगिनी का भी सहयोग हमें मिलता है जो बताती है कि आखिर सामाजिक ताने-बाने के साथ उसकी गुरुआई के कौन से गुर हम सीखें की हम उच्च पारिवारिक मापदंडों को छू सकें। परिवार के प्रति समर्पण भाव यह आगे आने वाली पीढ़ी की तरफ से हमें सीख में दी जाती है और फिर मृत्यु की शय्या पर लेटे-लेटे हम यह सीख ले पाते हैं कि कौन साथ था और कौन नहीं। क्योंकि विषम परिस्थितियों में अच्छे-बुरे और अपने-पराये का पाठ सीखाने के लिए तब ‘समय’ हमारा गुरु होता है।

ऐसे में साफ है कि जिसने आपको किताबों का दिया ज्ञान वही केवल आपके शिक्षक नहीं हैं, इस जड़-चेतन में जो भी आपसे जुड़ा है सभी ने अपने स्तर पर आपको कुछ ना कुछ सीखाया है। ऐसे में इन सभी गुरु को प्रणाम तो बनता है।

Kumar Aditya: Anything which intefares with my social life is no. More than ten years experience in web news blogging.
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