आजीवन कारावास की सजा काट रहे सजायाफ्ता कैदी को राहत देते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि माता-पिता बनने का अधिकार एक दोषी का मौलिक अधिकार है। न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा की पीठ याचिकाकर्ता को वंशवृद्धि के लिए चार सप्ताह की पैरोल देते हुए स्पष्ट किया कि यह अधिकार पूर्ण नहीं है, बल्कि संदर्भ पर निर्भर करता है।
पैरोल पर रिहा होने के आदेश
कैदी के माता-पिता की स्थिति और उम्र जैसे कारकों पर विचार करके एक निष्पक्ष और उचित दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। अदालत ने कहा कि तथ्यों व परिस्थितियों को देखते हुए याचिकाकर्ता को 20 हजार रुपये के निजी मुचलके व इतनी ही राशि के एक जमानती पर पैरोल पर रिहा करने का आदेश दिया जाता है।
अदालत ने साथ ही निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता कुंदन सिंह उत्तराखंड के नैनीताल के बाहर अदालत की पूर्व अनुमति के नहीं जाएगा। यह भी आदेश दिया कि याचिकाकर्ता प्रत्येक बुधवार को नैनीताल के काठगोदाम थाने में अपनी उपस्थिति दर्ज कराएगा।
याचिकाकर्ता के नहीं है कोई बच्चा
अदालत ने उक्त आदेश व टिप्पणी हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा काट रहे कुंदन सिंह की याचिका पर सुनवाई करते हुए की। 14 साल जेल में बंद कुंदन ने याचिका दायर कर कहा कि वह 41 साल का है और उसकी पत्नी 38 साल की है। उनके कोई बच्चा नहीं है और वे संतान पैदा करके अपने वंश की रक्षा करना चाहते हैं।
पीठ ने कहा कि अदालत दोषी ठहराए जाने पर विवाहित के कई पहलुओं को सीमित कर देता है और पैरोल दिए जाने पर उचित प्रतिबंध लगाए जाने चाहिए। पीठ ने स्पष्ट किया कि यह न्यायालय वैवाहिक संबंध स्थापित करने के लिए पैरोल देने के अनुरोध पर विचार नहीं कर रही है, बल्कि वंशवृद्ध के मौलिक अधिकार के मामले पर सुनवाई कर रही है।
न्याय कृत्रिम नहीं, वास्तविक होता है- कोर्ट
ऐसे में अदालत की राय है कि न्याय कृत्रिम नहीं, बल्कि वास्तविक होता है और मानव जीवन की वास्तविकता को ध्यान में रखते हुए निर्णय देना होगा। अदालत ने यह भी कहा कि एक स्वतंत्र नागरिक के मामले में प्रजनन के अधिकार को आम तौर पर इसे हल्के में लिया जाता है।
हालांकि, जब कोई व्यक्ति कैद में हो तो संतान प्राप्ति के उद्देश्य से पैरोल जरूरी हो जाता है। अदालत ने कहा कि दिल्ली जेल नियम-2018 पैरोल देने के आधार के रूप में बच्चे पैदा करने और माता-पिता बनने का प्रविधान नहीं करता है, लेकिन यह संवैधानिक अदालत को ऐसी राहत देने से नहीं रोक सकता है।