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मिथिलांचल में भाई बहन के प्रेम का पर्व सामा चकेवा, इसकी कहानी जान आप दंग रह जाएंगे

सामा-चकेवा मिथिला का प्रसिद्ध लोक पर्व है. मिथिला में सामा चकेवा पर्व भाई-बहन के परस्पर स्नेह संबंधों का प्रतीक है. कार्तिक शुक्ल सप्तमी से कार्तिक पूर्णिमा तक भाई-बहन का यह त्योहार सात दिनों तक चलता है. कार्तिक पूर्णिमा की शाम को मिथिला की लड़कियां और महिलाएं सामा की विदाई करती है. उनकी विदाई उसी रूप में होती है जिस रूप में घर की एक लड़की की विदाई होती है.

स्कंद पुराण में है सामा चकेवा का उल्लेख : संस्कृत के विद्वान एवं वेदाचार्य डॉ धीरज कुमार झा का कहना है कि स्कन्द पुराण में सामा चकेवा की कहानी वर्णन है.

”द्वारकायाण्च कृष्णस्य पुत्री सामातिसुंदरी.

साम्बस्य भगिनी सामा माता जाम्बाबती शुभा.

इति कृष्णेन संशप्ता सामाभूत् क्षितिपक्षिणी.

चक्रवाक इति ख्यातः प्रियया सहितो वने.”

भगवान ने क्रोधित होकर बेटी को दिया श्राप : सामा नाम की द्वारिकाधीश भगवान कृष्ण की एक बेटी थी. सामा की माता का नाम जाम्बवती था और भाई का नाम सम्बा था. सामा के पति का नाम चकेवा था. चूडक या चुगला नामक एक व्यक्ति ने सामा पर वृंदावन में ऋर्षियों के संग घूमने का आरोप भगवान कृष्ण को बताया. जिससे श्रीकृष्ण ने क्रोधित हो सामा और उन ऋषियों को पंक्षी बनने का श्राप दे दिया और इसके बाद सामा पंक्षी बन वृंदावन में विचरण करने लगी. अपनी पत्नी को पंक्षी के रूप में देखकर उनके पति चकेवा भी बहुत दुखी रहने लगे और उन्होंने भी पत्नी के वियोग में पक्षी का रूप लेकर वृंदावन में रहने का फैसला कर लिया.

साम्ब की कठोर तपस्या : सामा के भाई साम्ब को इस बात की जानकारी नहीं थी कि उनकी बहन को उनके पिता ने पक्षी बनने का श्राप दे दिया है. उन्होंने पहले पूरी बात की जानकारी ली और जब उन्हें पता चला कि उनके पिता का कान भरा गया है. उसी से क्रोधित होकर उनके पिता ने सामा को पक्षी बनने का श्राप दिया है. भगवान कृष्ण का श्राप झूठ नहीं हो सकता था. इसीलिए साम्ब ने अपने पिता को खुश करने के लिए कठोर तपस्या का निर्णय लिया और वह वर्षों तक तपस्या करते रहे.

भगवान कृष्ण ने क्या कहा ? : अपने पुत्र साम्ब की तपस्या से प्रसन्न होकर कृष्ण ने उनसे वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने अपनी बहन को फिर से मनुष्य रूप में बनाने का आग्रह किया. तपस्या से प्रसन्न कृष्ण ने उनको बताया कि कार्तिक सप्तमी से कार्तिक पूर्णिमा तक मिट्टी का मूर्ति बनाकर पूजा करने के बाद उसे मूर्ति के ऊपर में बने पक्षी को भाई अपने घुटने पर रखकर यदि अलग करता है तो सामा को पक्षी रूप से मुक्ति मिल जाएगी. उनके बताए हुए रास्ते पर चलकर कार्तिक सप्तमी से कार्तिक पूर्णिमा तक मिट्टी के बने हुए मूर्ति की पूजा की परंपरा शुरू हुई.

भाई-बहन के प्रेम प्रतीक की पूजा : सामा चकेवा पर्व 7 दिनों का होता है. इसमें मिथिला की महिलाएं और लड़की पूरे हर्ष के साथ इसको मनाती हैं. इन 7 दिनों में मिथिला की हर घर में शाम में सामा चकेवा का गीत गाया जाता है. मिथिला की महिलाएं साल भर सामा चकेवा पर्व का इंतजार करती हैं. कार्तिक सप्तमी से शुरू होने वाले इस पर्व की तैयारी में महिलाएं एक सप्ताह पहले से जुट जाती हैं.

चुगला की भी बनती है मूर्ति : मिट्टी की मूर्ति बनाई जाती है. इन मूर्तियों में अनेक तरह की मूर्तियां होती हैं जैसे सात ऋषियों की मूर्ति को सतभैया कहा जाता है. कृष्ण को जिस चूरक यानी चुगला ने सामा के बारे में कान भड़ा था, उसकी भी एक मूर्ति बनाई जाती है जिसमें खर पतवार लगाया जाता है. वृंदावन जंगल के प्रतिक के रूप में एक मिट्टी की मूर्ति बनाई जाती है जिसमें पटसन यानी सौंन का बाल बनाया जाता है.

लड़कियों का झुंड सामा खेलती है : शाम में सामा चकेवा के गीत गाए जाने के बाद पूरे मोहल्ले की महिलाएं अपना-अपना सामा चकेवा बांस के बने हुए डाला या चंगेरा में लेकर एक जगह एकत्रित होती हैं. सभी महिलाएं और लड़कियां अपने भाई की लंबी उम्र की दुआ मांगते हुए सामा चकेवा का खेल खेलती हैं. मिथिलांचल के हर गांव में चाहे वह किसी भी जाति का क्यों ना हो, सामा खेलने की परंपरा है. इन 7 दिनों में रात के समय 7 बजे से 8 बजे के बीच हर मोहल्ले में महिलाओं एवं लड़कियों का झुंड सामा खेलते हुए दिखता है.

”सामा चकेवा के पर्व में महिलाएं चुगला और वृंदावन के प्रतीक के रूप में बने मूर्तियों में आग लगाती हैं. चुगला में इसीलिए आग लगाई जाती है ताकि यह संदेश जा सके कि किसी की शिकायत करना सही नहीं है. शिकायत करने वालों का यही अंजाम होता है. वृंदावन की मूर्ति में इसीलिए आग लगाई जाती है कि उसमें आग लगने पर भाई के रूप में आकर बचाने का काम करते हैं.”– रिमु झा, मधुबनी की रहने वाली महिला

कार्तिक पूर्णिमा को दी जाती है विदाई : संस्कृत के विद्वान डॉ धीरज कुमार झा ने ईटीवी भारत से बातचीत में बताया कि कार्तिक पूर्णिमा को सामा चकेवा की विदाई होती है जिसे भौसौन मिथिला में कहा जाता है. कार्तिक पूर्णिमा से 2 दिन पहले की सामा चकेवा खेलने वाली महिलाएं जैसे अपनी बेटी की विदाई की जाती है उसी तरीके से मिट्टी के बर्तन तैयार करती हैं. उन बर्तनों में चावल खाने पीने के अन्य सामान डाला जाता है.

”चुंकी कृष्ण जी के सबसे मुक्ति का दिन कार्तिक पूर्णिमा का है, इसीलिए उस दिन सामा की मूर्ति के ऊपर बने चिड़िया को अलग करने की परंपरा है. महिलाएं सामा की मूर्ति देकर उससे चिड़िया को अलग करने का रस्म निभाती हैं. कहा जाता है कि जैसे ही सामा की मूर्ति से चिड़िया अलग होती है, सामा को श्राप से मुक्ति मिल जाती है. इसके बाद बहन अपने भाई को खाने के लिए मीठे पकवान देती है. कार्तिक पूर्णिमा के दिन सामा के विसर्जन की परंपरा है.”– डॉ धीरज कुमार झा, संस्कृत के विद्वान

मूर्तियों को खेत में भसाने की परंपरा : कार्तिक पूर्णिमा को सामा चकेवा के विसर्जित या भसाने की परंपरा है. सामा चकेवा की मूर्तियों को पूरे विधि विधान के साथ जोते हुए खेत में भसाने की परंपरा है. कहीं कहीं नदियों में भी बेर बनाकर उन्हें विसर्जित करने की परंपरा है. सामा चकेवा की विदाई का यह बेला बड़ा ही मार्मिक होता है.

अगले साल आने की गुहार : जैसे घर की बेटी की विदाई के समय घर के सभी लोग उदास हो जाते हैं, उसी तरीके से सामा की विदाई के समय भी सभी महिलाएं उदास हो जाती है. जिस तरीके से घर की बेटी को जाते वक्त में खाने-पीने और पकवान का सामान दिया जाता है. उसी तरीके से सामा की विदाई के समय भी उनके साथ खाने पीने के समान एवं मिठाई देने की परंपरा है. उनके विदाई के समय महिलाएं रोते हुए फिर से अगले साल आने की गुहार लगाते हुए उन्हें विदाई देती है.


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