माता के मंदिर में दिन में तीन बार बदलता है शिवलिंग का रंग; बलि भी हो जाती है बिना खून बहे कबूल

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वैसे तो भारत में बलिप्रथा पर संवैधानिक रूप से पाबंदी लगे अर्सा बीत चुका है, लेकिन बावजूद इसके धर्म के ठेकेदार हैं कि मानते ही नहीं हैं। हिंदू हों या इस्लाम को मानने वाले, धर्म के नाम पर कुछ लोग खून बहाने का बहाना ढूंढ ही लेते हैं। ऐसे लोगों को सीख देने के लिए देश में कई धर्मस्थल हैं, जहां इंसान हो या जानवर किसी बेकसूर का खून नहीं बहाया जाता। अब जबकि नवरात्र उत्सव चल रहा है तो इसी बीच The Voice of बिहार एक ऐसे मंदिर की कहानी से आपको रू-ब-रू करा रहा है, जहां बिना खून बहे ही बलि कबूल हो जाती है। इतना ही नहीं, यहां एक और बड़ा चमत्कार यह भी देखने को मिलता है कि यहां स्थापित अनंत ब्रह्म का प्रतीक शिवलिंग दिन में तीन बार रंग बदलता है। जानें इस मंदिर का रोचक इतिहास और दूसरी बहम बातें…

यह अनोखा मंदिर बिहार के कैमूर जिले में भगवानपुर प्रखंड की पवरा पहाड़ी पर स्थित है। देशभर के पुरातन मंदिरों में से एक इस धाम को मां मुंडेश्वरी मंदिर के नाम से जाना जाता है। हालांकि इस बात का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता कि इस मंदिर का निर्माण कब और किसने करवाया, लेकिन यहां मिले एक प्राचीन शिलालेख में उदय सेन नामक राजा के शासन काल में इसके निर्माण का उल्लेख मिलता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI Department) द्वारा संरक्षित इस मंदिर की आकृति अष्टकोणीय है। इसे 2007 में बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद ने अधिग्रहीत किया था, जिसकी देखरेख में यहां की सारी व्यवस्था चल रही है। मंदिर में मां को शुद्ध घी से बने मिठाई का ही भोग लगाया जाता है। हालांकि कुछ बरस पहले तक श्रद्धालु यहां नारियल और ईलायचीदाना का प्रसाद लाते थे, लेकिन प्रशासन की पहल पर अब यहां तांडूल प्रसाद चढ़ता है।

मिल चुकी मंदिर के इतिहास की तरफ इशारा करती कई चीजें

मंदिर के बारे में मान्यता है कि अर्से पहले इस मंदिर का पता तब चला था, पहाड़ी पर मवेशियों को चराने गए कुछ गड़ेरियों की नजर पड़ी। हालांकि उस वक्त पहाड़ी की तलहटी में रहने वाले लोग इस में पूजा-अर्चना करते थे। शिलालेख में वर्णित तथ्यों के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि शुरुआत में यह मंदिर वैष्णव मत के मानने वालों का रहा होगा, लेकिन बाद में शैव मंदिर हो गया और उत्तर मध्य युग में शाक्त विचार धारा के प्रभाव से शक्तिपीठ के रूप में परिणित हो गया। उस दौरान यहां मां मुंडेश्वरी की उपासना शुरू हो गई थी। यहां से बौद्ध साहित्य में वर्णित ईसा पूर्व 101-77 में श्रीलंका अनुराधापुर वंश के महाराज दुत्तगामनी के वक्त की मुद्रा भी यहां मिली थी।

अनोखी बलि और चढ़ावे का सत्य

श्रद्धालु अपने साथ लेकर आए बकरे को पुजारी को सौंप देते हैं और पुजारी उसे मां की मूर्ती के सामने खड़ा करके उस पर वो अक्षत (अखंडित चावल) और फूल फेंकते हैं, जो माता की पूजा में अर्पित किए जाते हैं। इसके बाद बकरा बेहोश हो जाता है। चंद मिनट के बाद जब पुजारी पूजा संपन्न कर लेते हैं तो जैसे ही पवित्र जल का छींटा देते हैं, बकरा फिर से खड़ा हो जाता है। इसके बाद इस बकरे को छोड़ दिया जाता है। बता देना जरूरी है कि मां मुंडेश्वरी के मंदिर में एक पंचमुखी शिवलिंग और बाहर दक्षिण में नंदी जी प्रतिमा स्थापित है। खास बात यह है कि शिवलिंग सुबह, दोपहर और शाम को तीन अलग-अलग आभाओं में दृष्टिगोचर होता है।

मुंड नामक राक्षस के संहार के बाद मुंडेश्वरी नाम पड़ा मां भगवती का

अब बात आती है मंदिर के नामकरण की तो पौराणिक कथाओं पर विश्वास करें तो हजारों बरस पहले इस मंदिर के मूल देवता नारायण या विष्णु थे। मार्कण्डेय पुराण में भी इस मंदिर को लेकर एक उल्लेख है कि इस इलाके में मुंंड नामक एक अत्याचारी असुर रहता था, जिसका वध इसी पहाड़ी पर मां भगवती ने किया था, जिसके बाद माता को मुंडेश्वरी के नाम से जाना जाने लगा। मां मुंडेश्वरी मंदिर की कई सारी विशेषताओं में एक यह है कि यहां साल में तीन बार यानि माघ महीने में, चैत्र नवरात्र में और फिर शारदीय नवरात्र में भारी मेला लगता है। लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। मान्यता है कि मनोकामना पूरी हो जाने के बाद लोग यहां बकरे को लेकर माता को भेंट करने पहुंचते हैं, लेकिन भेंट का तरीका बड़ा अनूठा है।

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