क्या है अरविंद केजरीवाल के इस्तीफे के पीछे की रणनीति?

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नई दिल्ली। आम आदमी पार्टी (आप) के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने मंगलवार को अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इससे पहले आप के विधायक दल की बैठक में आतिशी को नेता चुना गया। उनके नाम की अनुशंसा केजरीवाल ने ही की थी।

इससे पहले 13 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने केजरीवाल को जमानत तो दे दी थी लेकिन उनके मुख्यमंत्री के तौर पर काम करने पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिये थे।

ऐसे में सवाल उठता है कि अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफा क्यों दिया? क्या कानूनी मजबूरियों में फंसने की वजह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा? या अगले कुछ महीनों में होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनावों में लोगों की सहानुभूति का फायदा लेने के लिए उन्होंने यह फैसला लिया है।

केजरीवाल ने इससे पहले भी 2013 में भी दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था। तब कांग्रेस के समर्थन से बनी उनकी सरकार को मात्र 49 दिन ही हुए थे। साल 2013 में हुए चुनाव में दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से आप को 28 और कांग्रेस को आठ सीटें मिली थीं। तब उन्होंने कहा था कि वह जनलोकपाल बिल नहीं पास करा पाए इसलिए वह सीएम पद छोड़ रहे हैं। इसके बाद जब विधानसभा के चुनाव हुए तो केजरीवाल की पार्टी ने अकेले बहुमत हासिल किया।

राजनीतिक जानकार अरविंद जयतिलक इसे केजरीवाल की एक सोची-समझी रणनीति मानते हैं। उनका कहना है कि एक तो सुप्रीम कोर्ट ने सशर्त जमानत दी है, उसमें वह न तो किसी फाइल पर दस्तखत कर सकते हैं, न ही दफ्तर जाकर कोई काम कर सकते हैं। शीर्ष अदालत ने उनके हाथ-पैर बांध दिए हैं। इस समय विपक्ष केजरीवाल पर हमलावर होकर घपला-घोटाले का आरोप लगा रहा है, और आगामी फरवरी में दिल्ली में विधानसभा चुनाव भी संभावित हैं। ऐसी स्थिति में उनके पास दो ही रास्ते बचते हैं। पहला, विधानसभा को भंग कराकर अभी चुनाव करा लिया जाए। दूसरा, पार्टी के किसी और व्यक्ति को दिल्ली की कुर्सी पर बैठाकर कुछ इस तरह से माहौल बनाया जाए, जिससे पार्टी को चुनावों में फायदा हो। ऐसे में आप के सामने यह सवाल उठा कि पार्टी के पास केजरीवाल के अलावा कौन सा ऐसा चेहरा है।

अरविंद जयतिलक मानते हैं कि आप ने आतिशी को इसलिए चुना क्योंकि वह महिला होने के साथ-साथ केजरीवाल के प्रति वफादार भी हैं। उन्होंने कहा, “केजरीवाल ने आतिशी को इसलिए चुना क्योंकि वह महिला हैं। दूसरी बात यह है कि वह केजरीवाल के प्रति वफादार हैं। उनकी केजरीवाल से नजदीकी का पता इस बात से चलता है कि 15 अगस्त को केजरीवाल ने जेल से ही पार्टी को आदेश दिया था कि उनकी गैर-मौजूदगी में पार्टी मुख्यालय पर आतिशी झंडा फहराएंगी। इसके अलावा केजरीवाल की यह रणनीति पहले से ही थी, इसलिए वह पहले से ही कई मौकों पर उन्हें फ्रंट पर ला रहे थे। ऐसे में जो सवाल चल रहा है कि क्या आतिशी को लाने से उन्हें इसका राजनीतिक लाभ मिलेगा।”

लोकसभा चुनावों में आप का सूपड़ा साफ होने के बारे में वह कहते हैं, “जेल जाने के घटनाक्रम को भुनाने की अरविंद केजरीवाल ने लोकसभा चुनावों में भी बहुत कोशिश की थी। उन्होंने जेल से निकलने के बाद जनता से जेल के बदले वोट देने की अपील की थी। उनकी यह कोशिश एकदम नाकामयाब रही। चूंकि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में अंतर होता है। यह बात केजरीवाल भी बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। इससे पहले भी 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में केजरीवाल कोई करामात नहीं दिखा पाए। इसके बावजूद विधानसभा चुनावों में उन्होंने एकतरफा जीत का परचम लहराया। उन्हें यह अब भी लगता है कि विधानसभा चुनावों में जनता की सहानुभूति मिलेगी। और यह सच है कि इसका उन्हें फायदा होगा। उसका कारण यह है कि भाजपा में उनके मुकाबिल दिल्ली में कोई बड़ा चेहरा नहीं है। इससे पहले इसलिए भाजपा ने दिल्ली में मनोज तिवारी को उतारा, उससे पहले किरण बेदी पर दांव लगाया। लेकिन वह सब दांव बेकार गए। केजरीवाल इसी का फायदा उठाना चाहते हैं। वह इस्तीफा देकर यह दिखाना चाहते हैं कि उनके लिए मुख्यमंत्री पद कोई बड़ी बात नहीं है। वह दिल्ली की जनता के लिए कोई भी कुर्बानी दे सकते हैं।”

आगे वह कहते हैं कि इसके अलावा केजरीवाल के इस्तीफा देकर आतिशी को लाने की एक और बड़ी वजह यह है कि केजरीवाल को लगता है कि आतिशी के पास कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है। जैसे झारखंड में चंपई सोरेन की रही, या बिहार में जीतन राम मांझी की रही। केजरीवाल को यह लगता है कि वह आतिशी को जैसे चाहें “दाएं-बाएं” कर सकते हैं। वह यह मान कर चल रहे हैं कि ऐसे में उन्हें यह सहानुभूति मिलेगी। भाजपा उनके खिलाफ जानबूझकर वातावरण बना रही है। केजरीवाल ने यही सोचकर ऐसा माहौल बनाया है। भारत में “बेचारा” का ठप्पा लगे व्यक्ति को अक्सर फायदा मिल जाता है, इसलिए वह उस “बेचारा” के फ्रेम में खुद को फिट करने की कोशिश कर रहे हैं।

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