राष्ट्रीय राजनीति में डॉ. मोहन यादव का नाम भले अनजाना हो, पर वे उज्जैन सम्भाग के अत्यंत लोकप्रिय नेता हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बौद्धिक सत्रों से तपकर निकले हैं और एक पके हुए स्वयंसेवक की ही भाषा बोलते हैं। एक समय वे उमा भारती के क़रीबी माने जाते थे। 2003 में उमा भारती के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस के दिग्विजय सिंह के विरुद्ध विधानसभा चुनाव लड़ा था। मोहन यादव को उज्जैन जिले के बड़नगर विधानसभा क्षेत्र से टिकट दिया गया। पर चुनाव के कुछ समय पूर्व उनसे टिकट वापस ले लिया गया और शांतिलाल धबाई को टिकट मिला। कारण, मोहन यादव बड़नगर के स्थानीय नेता नहीं थे और वहाँ के कार्यकर्ताओं में इस पर आक्रोश था। टिकट लौटाने के बाद मोहन यादव से पत्रकारों ने इसका कारण पूछा तो बोले, “हम बिजली के बल्ब हैं, जब संगठन बोले चालू, हम चालू हो जाते हैं, जब संगठन बोले बंद, हम बंद हो जाते हैं!” धबाई चुनाव जीकर विधायक बने। मोहन यादव को उमा भारती ने उज्जैन विकास प्राधिकरण का चेयरमैन बनाकर उपकृत किया।

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अपनी प्रशासनिक कुशलता और मुखर व्यक्तित्व के चलते मोहन यादव उज्जैन विकास प्राधिकरण के पर्याय बन गए थे। उज्जैन में एक स्थानीय पत्रकार के रूप में विकास प्राधिकरण मेरी बीट थी, इस कारण अनेक मर्तबा उनसे भेंट हुई। वे उज्जैन क्षेत्र में सर्वत्र ‘मोहन भाईसाब’ नाम से जाने जाते हैं और इसी नाम से उनका नम्बर मोबाइल में सेव था। जब-तब किसी ख़बर के सिलसिले में उन्हें फ़ोन लगाया जाता तो दूसरी तरफ़ से मोहन यादव का अट्टहास सुनाई देता। वे हैलो बोलते ही ज़ोर का ठहाका लगाते थे और उसी रौ में बातें करते थे। मिलनसार, हँसमुख व्यक्तित्व, किंतु संघ की विचारधारा पर अडिग। दक्षिणपंथी चेतना के प्रखर प्रवक्ता। नेहरूवादी-गांधीवादी प्रवर्तन के कटु-आलोचक। हिन्दुत्व के प्रस्तोता। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की ज़मीनी-राजनीति से निखरकर आए हुए नेता हैं।

2003 में टिकट लौटाया, जिसके पूरे दस साल बाद 2013 में वे उज्जैन-दक्षिण क्षेत्र से विधायक बने। मेरा मतदाता परिचय पत्र उज्जैन-दक्षिण का ही है, अलबत्ता 2013 में इन्दौर का निवासी था। अगर उस समय उज्जैन में होता तो मोहन यादव को वोट देता या नहीं, वह सार्वजनिक चर्चा का विषय नहीं है। पर वे बहुत तेज़तर्रार, शार्प नेता हैं और मध्यप्रदेश के नए मुख्यमंत्री के रूप में उनका चयन चाहे जितना चौंकाने वाला हो, बीजेपी कैडर में एक लीडर की जो परिभाषा होती है, उस पर वे पूरे खरे उतरते हैं।

छत्तीसगढ़ में आदिवासी और मध्य प्रदेश में पिछड़े नेता को मुख्यमंत्री बनाकर भारतीय जनता पार्टी ने अपनी राजनीति के इस नए दौर को जारी रखा है, जिसमें सवर्ण वोटों को वह टेकन फ़ॉर ग्रांटेड लेती है- जो कि सही भी है- और दलित, आदिवासी, पिछड़े, पसमांदा वोटों की तलाश में फ़्लोटिंग वोटर्स को लुभाती है। राष्ट्रपति भवन में दलित और आदिवासी राष्ट्रपति की प्रतिष्ठा भी इसी सोच से की गई थी। राजनीति में कहते हैं, आपका बंधक वोटबैंक आपको जीत नहीं दिलाता, फ़्लोटिंग वोटर्स जीत दिलाते हैं- किसी भी करवट बैठने वाले ऊँट की तरह। मध्य प्रदेश का यह चुनाव भाजपा को महिलाओं- एक और श्रेणी जो बंधक मतदाता नहीं कही जा सकती- के फ़्लोटिंग वोट्स ने ही जिताया है।

मध्य प्रदेश के निवासी सौम्य छवि वाले ‘मामाजी’ शिवराज सिंह को याद करेंगे, लेकिन अब मोहन ‘भाईसाब’ की बारी है। साल 2005 में शिवराज ने उमा भारती की कुर्सी हासिल कर ली थी, अब उमा के पटुशिष्य ने उन्हें बेदख़ल करके समय का एक चक्र पूरा कर दिया है।


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