रूस और यूक्रेन की जंग का हल निकालने के लिए सऊदी अरब के जेद्दा में यूक्रेन शांति शिखर सम्मेलन का आयोजन 5 और 6 अगस्त को किया गया। भारत ने भी इसमें हिस्सा लिया। सऊदी अरब में हुए इस शांति सम्मेलन में यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने भी हिस्सा लिया और 10 सूत्रीय शांति फॉर्मूला रखा, जिस पर विचार विमर्श हुआ। सवाल यह है कि आखिर दुनिया के बड़े मसलों पर सऊदी अरब अचानक क्यों इतनी दिलचस्पी लेने लगा? सुन्नी देश सऊदी अरब क्यों वैश्विक घटनाक्रमों में अपनी सक्रियता बढ़ा रहा है? क्यों रूस और चीन जैसे देशों के साथ उसके ताल्लुकात इतने गहरे होते जा रहे हैं? अमेरिका का करीबी रहा सऊदी अरब अब क्यों और किस वजह से अमेरिका से दूर दूसरी ‘लॉबी’ में अपनी सक्रियता दिखा रहा है। सऊदी अरब के मुखिया मोहम्मद बिन सलमान क्यों दुनिया के नए ‘बादशाह’ बनना चाहते हैं? यहां जानिए ऐसे ही सभी सवालों के जवाब।

सऊदी अरब ने दो दिन की यूक्रेन शांति वार्ता आयोजित कर दुनिया को यह संकेत दिया कि वह अब सिर्फ ‘तेल’ बेचने वाला कारोबारी ही नहीं है, बल्कि वैश्विक घटनाक्रमों में सक्रियता बढ़ाकर अपने ‘नए इरादे’ दुनिया को दिखा रहा है। सऊदी अरब पर हाल ही में यूक्रेन और रूस की जंग के कारण विपरीत असर पड़ा है। उससे तेल खरीदने वाले परंपरागत ग्राहक अब रूस से बड़ी मात्रा में तेल खरीद रहे हैं। इन सबके बीच अब बदलती दुनिया में जब इलेक्ट्रॉनिक व्हीकल और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है, सऊदी अरब अब अपने देश को पूरी तरह से बदला चाहता है। एक तेल उत्पादक देश होने के साथ ही वह अपने देश का इंफ्रास्ट्रक्चर बदल रहा है। ऐसा करके वह यह जताना चाहता है कि अब वह टूरिज्म इंडस्ट्री में तेजी से अपने आपको ‘शिफ्ट’ कर रहा है। ताकि दूसरे माध्यमों से भी अरब को तगड़ी आया भविष्य में हो सके। वह तेजी से इस दिशा में वह काम कर रहा है। इसके लिए उसे नए दोस्तों की जरूरत है, जो उसके इस सपने को साकार करने में अपना सहयोग दे सकें।

बदलते सऊदी अरब को लेकर क्या कह रहे विदेशी मामलों के विशेषज्ञ?

विदेश मामलों के जानकार और विदेश से जुड़े मुद्दों पर कई पुस्तकें लिख चुके लेखक रहीस सिंह ने इंडिया ​टीवी डिजिटल को बताया कि सऊदी अरब के बादशाह मोहम्मद बिन सलमान, अपने देश को रिफॉर्म करना चाहते हैं। वे जानते हैं कि सऊदी अरब का भविष्य चूंकि केवल ‘तेल’ बेचने से उज्जवल नहीं होगा, इसलिए वे इंफ्रास्ट्रक्चर बदलना चाहते हैं। ऐसे में उन्हें ऐसे देशों की जरूरत है जो इंफ्रास्ट्रक्चर पर तेजी से काम कर रहे हैं, उसमें सबसे आगे चीन है। इसलिए अरब को अब चीन और रूस की ‘लॉबी’ का साथ मिलना जरूरी है।

रूस और चीन के करीब क्यों जा रहा अरब?

चीन ने दुनिया के सबसे बड़े सुन्नी देश सऊदी अरब और शिया देश ईरान को दोस्त बना दिया। उनके बीच सुलह कराई। यह इस बात को दर्शाती है कि अगर ईरान और अरब एक साथ बैठ सकते हैं तो जाहिर सी बात है कि खाड़ी क्षेत्र में ईरान अरब के बीच डिप्लोमटिक गलियारा हो गया। जो बड़े मैसेज दे रहा है। इससे यह स्पष्ट हो रहा है कि सऊदी अरब को अब साधने में अमेरिका या पश्चिमी लॉबी असफल रही। रूस चीन लाबी सफल रही।

जानिए अमेरिका से क्यों दूर होता जा रहा सऊदी अरब?

रहीस सिंह बताते हैं कि पहले, जो अमेरिकी खेमे में जाता था, अमेरिका उसे आगे ले जाता था। वैश्विक डिप्लोमेसी में उसे अमेरिका का दोस्त और पार्टनर होने का काफी लाभ मिलता था। यह सबकुछ चला, पिछले दशक तक या कहें राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल तक। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आने के बाद ‘अमेरिका फर्स्ट’ की नीति को अमेरिका ने फॉलो किया। इस कारण उसके खेमे से सउदी अरब जैसे देश छिटकने लगे। सऊदी अरब भी अब पूरी तरह से अमेरिका पर निर्भर नहीं रहना चाहता। इसी का फायदा रूस और चीन की लॉबी ने उठाया। अब चीन और रूस मिलकर अरब को यह मैसेज देना चाहते हैं कि हम ‘नई आइडेंटिटी’ के साथ आपको आगे ले जाएंगे।

विश्व में ‘जियो इकोनॉमिक्स’ ने ले ली ‘जियो पॉलिटिक्स’ की जगह

सऊदी अरब जो तेजी से अपने देश का इंफ्रास्ट्रक्चर बदल रहा है, उसे नई टेक्नोलॉजी की जरूरत है। यह टेक्नोलॉजी चीन दे सकता है। बदले में चीन को अपने इंफ्रास्ट्रक्चर को सुधारने और डेवलप करने के लिए धनराशि की जरूरत है, वो धनराशि सऊदी अरब से मिल सकती है। यही नहीं, चीन मिडिल ईस्ट तक कारोबार को सुगम बनाने के लिए बेल्ट एंड रोड ​इनिशिएटिव के तहत अरब देशों में रेल इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करना चाहता है, इसमें सबसे बड़ा योगदान सऊदी अरब दे सकता है। इस कारण अब चीन और सऊदी अरब के बीच भागीदारी और साझेदारी बढ़ रही है। इस तरह विश्व में अब ‘जियो पॉलिटिक्स’ की जगह ‘जियो इकोनॉमिक्स’ ने ले ली है।

लड़ाई सिर्फ यूक्रेन की नहीं, पश्चिमी देश और रूस में है असल जंग

रूस और यूक्रेन की जंग केवल इन दोनों देशों की नहीं है। बल्कि ये टकराव पश्चिमी लॉबी और रूस का है। पश्चिमी लॉबी यानी नाटो देश और बचे हुए यूरोपीय देश। वहीं रूस की लॉबी में रूस, चीन, उत्तरी कोरिया और अब कुछ हद तक कहें तो सऊदी अरब।

अरब के जेद्दा में हुई शांति वार्ता सफल? समझिए समीकरण

इस जंग में असल में यूक्रेन सिर्फ बैटल ग्राउंड है। उसके पीछे की मंशा कुछ अलग है। रहीस सिंह कहते हैं कि पश्चिमी लॉबी रूस को कमजोर करना चाहती है, क्योंकि रूस और चीन मिलकर पश्चिमी देशों के लिए बड़ा खतरा बन रहे हैं। इसी लिए जो जर्मनी और फ्रांस यूरोपीय यूनियन में नाटो का विरोध करते थे, वे नाटो की वकालत कर रहे हैं। पश्चिमी देश यह जानते हैं कि अगर शांति वार्ता हो गई, यूक्रेन यदि रूस से फ्रेंडशिप करने लगा, तो पश्चिमी दुनिया के देश खतरे में पड़ जाएंगे। हालांकि सच ये भी है कि रूस औश्र यूक्रेन की इकोनॉमी डैमेज हो चुकी हैं। विकासशील देशों पर अनाज और खाने का संकट खड़ा हो गया है। ऐसे में शांति वार्ता सऊदी अरब का एक सफल प्रयास है। इस शांति वार्ता से सऊदी अरब ने वैश्विक डिप्लोमेसी में अपने ‘नंबर’ बढ़वा लिए हैं, इसमें कोई शक नहीं है।


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